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प्रथमोन्मेषः
किसी प्रयत्न के ( स्वाभाविक रूप से ) उत्पादित, हृदय को आनन्द देने वाले थोड़े से अलंकार से युक्त-॥ २५ ।।।
भावस्वभावप्राधान्यन्यक्कृताहार्यकौशलः ।
रसादिपरमार्थज्ञमनःसंवादसुन्दरः ॥ २६ ॥ तथा पदार्थों के स्वभाव की प्रधानता से, व्युत्पत्तिजन्य निपुणता का तिरस्कार करने वाला, ( शृंगार आदि ) रसों (एवम् रति) आदि (स्थायी. भावों ) के परमरहस्य को जानने वाले ( सहृदयों ) के हृदयों के द्वारा अनुभव आने वाले ज्ञान से सुन्दर-॥ २६ ॥
अविभाबितसंस्थानरामणीयकरञ्जकः ।
विधिवैदग्ध्यनिष्पन्ननिर्माणातिशयोपमः ॥ २७॥ एवं अविभावित स्थितिवाले ( अर्थात् जिसकी सत्ता का केवल अनुभव किया जा सकता है, शब्दों द्वारा नहीं व्यक्त किया जा सकता उस) सौन्दर्य से ( सहृदयों को ) आनन्दित करने वाला तथा विधाता के कौशल से निष्पन्न सृष्टि-रचना के ( अर्थात् रगणी, लावण्य आदि रूप ) सौन्दर्य के साथ सादृश्य रखने वाला--॥ २७ ॥
यत् किनापि वैचित्र्यं तत्सर्व प्रतिभोद्भवम् ।
सौकुमार्यपरिस्पन्दस्यन्दि यत्र विराजते ॥ २८ ॥ तथा जहाँ सुकुमारताजन्य ( सहृदयहृदयाह्लादकारित्व रूप ) रमणीयता के द्वारा ( रसमय ) प्रवाहित होने वाला जो कुछ भी वैचित्र्य (अर्थात् वक्रोक्ति का योग ) शोभातिशय का पोषण करता है, वह सब प्रतिभा से ही उल्लसित होता है ( आहार्य रूप व्युत्पत्ति आदि के द्वारा नहीं ) ॥ २८ ॥
सुकुमाराभिधः सोऽयं येन सत्कवयो गता।
मार्गेणोत्फुल्लकुसुमकाननेनेव षट्पदाः ॥ २९॥ ऐसा वह सुकुमार नाम का मार्ग है, जिस मार्ग से ( कालिदास आदि) सत्कवि, विकसित हुए फूलों के बन से ( गुजरने वाले ) प्रमरों के समान गुजरे अर्थात् काव्य-रचना में प्रवृत्त हुए हैं ॥ २६ ॥
सुकुमाराभिधः सोऽयम् , मोऽयं पूर्वोक्तलक्षणः सुकुमारशब्दाभि. धानः । येन मार्गेण सत्कवयः कालिदासप्रभृतयो गताः प्रयाताः, तदाश्रयेण काव्यानि कृतवन्तः । कथम्-उत्फुल्लकुसुमकाननेनेव