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वक्रोक्तिजीवितम तौ च स्वाभावाभिव्यञ्जनेनैव साफल्यं भजतः । स्वभावस्य तयोश्च परस्परमुपकार्योपकारकभावेनावस्थानात स्वभावस्तावारभते, तो च तत्परिपोषमातनुनः । तथा चाचेतनानामपि भावः स्वभावसंवादिभावान्तरसन्निधानमाहात्म्यादभिव्यक्तिमासादयति, यथा चन्द्रकान्तमणयश्चन्द्रमसः करपरामर्शवशेन स्पन्दमानसहजरसप्रसराः सम्पद्यन्ते ।
( सुकुमार और विचित्र दोनों ) शक्तियों की स्वाभाविकता का कथन तो (उनके ) आन्तरिक होने के कारण ठीक है, लेकिन आहार्यरूप (बाह्य प्रयत्नों से प्राप्त होने वाले ) व्युत्पत्ति और अभ्यास की स्वाभाविकता कैसे सम्भव हो सकती है। ( अतः स्वभाव-भेद के आधार पर मार्गभेद भी करना ठीक न होगा। इसका उत्तर देते हैं )-यह ( कोई ) दोष नहीं है क्योंकि काव्य-रचना की बात तब तक छोड़ दीजिए। दूसरे विषयों में भी सभी किसी के अनादि वासना के अभ्यास से अधिवासित अन्तःकरण वाले सभी किसी के व्युत्पत्ति और अभ्यास स्वभाव के अनुसार ही प्रवृत्त होते हैं, (अर्थात् जिसका जैसा स्वभाव होता है उसी प्रकार उसके व्युत्पत्ति और अभ्यास होते हैं। ( व्युत्पत्ति और अभ्यास ) दोनों स्वभाव की अभिव्यक्ति कराने से ही सफल होते हैं। स्वभाव तथा उन दोनों के परस्पर उपकार्य और उपकारक रूप से अवस्थित होने के कारण स्वभाव पहले प्रारम्भ करता है और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास दोनों उसका परिपोषण करते हैं इसीलिए जड़ पदार्थों का भी स्वभाव ( अपनी) सत्ता से साम्य रखनेवाली दूसरी सत्ता के सम्पर्क के माहात्म्य से अभिव्यक्त होता है। जैसे-चन्द्रकान्तमणियाँ चन्द्रमा की किरणों के साथ सम्पर्क होने के कारण प्रवाहित होने वाले स्वाभाविक जल के प्रवाह से युक्त हो जाते हैं ।
तदेवं मार्गानुद्दिश्य तानेष क्रमेण लक्षति
तो इस प्रकार ( २४ वीं कारिका से सुकुमार, विचित्र तथा मध्यम ) मार्गों का केवल नाम बताकर उनका ही क्रमानुसार लक्षण करते हैं । ( उनमें सबसे पहले क्रमप्राप्त सुकुमार मार्ग को प्रारम्भ में लक्षित करते हैं )
अम्लानप्रतिभोनिनवशब्दार्थबन्धुरः ।
अयत्नविहितस्वल्पमनोहारिविभूषणः ॥ २५॥ (कवि की ) दोषहीन प्रतिभा से ( स्वतः ) स्फुरित हुए नवीन (सहृदयाहादजनक ) शब्द तथा अर्थ से रमणीय (हृदयावर्जक ), एवं विना