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वक्रोक्तिजीवितम्
है । क्योंकि देशधर्मं वृद्धों की व्यवहार-परम्परा को ही आश्रयण करने के कारण अपने अनुष्ठान की सम्भावना का अतिक्रमण नहीं करता है ( अर्थात् वृद्धों की परम्परा पर आधारित होने के कारण उसकी स्थिति वहाँ पर असम्भव नहीं है ) । लेकिन शक्ति आदि कारण-समुदाय के साकल्य की अपेक्षा रखनेवाली उस प्रकार की काव्य-रचना तो किसी भी प्रकार देश-विदेष के आधारपर स्थापित नहीं की जा सकती । और न, दाक्षिणात्य गीत-विषयक सुस्वरता इत्यादि ध्वनि के सौन्दर्य के सदृश उसकी स्वाभाविकता ही कही जा सकती है, क्योंकि उस प्रकार की स्वाभाविकता स्वीकार कर लेने पर उसी प्रकार की काव्य-रचना सभी के लिए सम्भव हो जायगी । और फिर ( यदि शक्ति को सभी के अन्दर समानरूप से मान लिया भी जाय तो फिर ) शक्ति के विद्यमान रहने पर भी, व्युत्पत्ति इत्यादि आहार्य ( अर्थात् प्रयत्न द्वारा सम्पन्न होने वाली कारण-सम्पत्ति हर एक देश के विषय रूप में निश्चित नहीं है ( क ) किसी नियम के आधार के अभाव के कारण (ख) उस (देश-विदेश) के सभी कवियों में दिखाई न पड़ने से ( ग ) अन्यत्र ( दूसरे देश के कवियों में भी ) दिखाई पड़ने से । ( अर्थात् यदि देश के सभी व्यक्तियों में शक्ति को स्वीकार भी कर लिया जाय तो व्युत्पत्ति इत्यादि आहार्य कारण-सम्पत्ति भी वहाँ निश्चित रूप से पायी जाय यह सर्वथा असम्भव है अतः देशभेद के आधार पर रीतियों का भेद करना ठीक नहीं है ) ।
न च रीतिनामुत्तमाधममध्यमत्वभेदेन त्रैविध्यं व्यवस्थापयितुं न्याय्यम् । यस्मात् सहृदयाह्लादकारि काव्यलक्षणप्रस्तावे वैदर्भी सदृशसौन्दर्यासंभवान्मध्यमाधमयोरुपदेशवैयर्थ्य मायाति 1 परिहार्यत्वे - नाप्युपदेशो न युक्ततामालम्बते, तैरेवानभ्युपगतत्वात् न चागतिक गतिन्यायेन यथाशक्ति दरिद्रदानादिवत् काव्यं करणीयतामर्हति । तदेवं निर्वचनसमाख्यामात्रकरणकारणत्वे देशविशेषाश्रयणस्य वयं न विदामहे । मार्गद्वितयवादिनामध्येतान्येव दूषणानि । तदलमनेन निःसारवस्तुपरिगलन व्यसनेन ।
और न तो रीतियों का उत्तम, मध्यम और अधम रूप भेदों के द्वारा उनका विविध विभाजन उचित है क्योंकि सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करनेवाले काव्य के लक्षण के प्रसंग में वैदर्भी के सदृश सुन्दरता सम्भव न हो सकने से अन्य ( दो भेद ) मध्यम और अधम का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा ( क्योंकि वैदर्भी के समान आह्लादजनक न होने के कारण गौडी