________________
प्रथमोन्मेषः
६१
देते हैं । तथा स्थल पर पहुँच एक साथ ही अर्जुन तथा शङ्कर दोनों के बाणों के लगने से बह शूकर मर जाता है । अर्जुन एक ओर से अपना बाण लेने पहुँचते हैं दूसरी ओर से शङ्कर का भेजा हुआ किरात सैनिक शङ्कर के बाण को खोजता हुआ वहीं पहुँचता है । पहले वह बड़ी शान्तिपूर्वक भाषण करता हुआ अर्जुन से बाण वापस देने को कहता है । फिर शङ्कर के साथ सुग्रीव एवं राम की भांति मंत्री करने का प्रलोभन देता है । और जब इस पर भी अर्जुन बाण देने को तैयार नहीं होते तो शङ्कर के अपूर्व पराक्रम का वर्णन कर अर्जुन को भय का प्रदर्शन करता है । और इसी प्रकार बात बढ़ते २ अर्जुन की चुनौती स्वीकार कर शङ्कर सहित वे युद्ध करने के लिए उपस्थित हो जाते हैं । इस प्रकार यहाँ कवि को अभिप्रेत रहा है शङ्कर और अर्जुन का युद्ध जिससे की आगे शङ्कर भगवान् प्रसन्न हो अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदान करते हैं । उस युद्ध का वर्णन प्रस्तुत करने के लिए ही कवि ने इस प्रकरण का निबन्धन किया है । अतः यद्यपि इसमें वर्णन तो बाण की खोज का ही किया गया है लेकिन यदि उसके अभिप्राय (तात्पर्यार्थ ) का विचार किया जाय तो साफ स्पष्ट है कि वह केवल युद्ध की ही भूमिका है । अतः यह प्रकरण की वक्रता हुई ।
तथा च तत्रैवोच्यते
-
प्रयुज्य सामाचरितं विलोभनं भयं विभेदाय धियः प्रदर्शितम् । तथाभियुक्तं च शिलीमुखार्थिना यथेतरन्न्याय्यमिवावभासते ।। ७१ ।।
जैसा कि वही ( १४ वें सर्ग के ७ वें श्लोक में अर्जुन के द्वारा ) कहा गया है
( तुमने पहले शान्तिपूर्ण बातें कर ) साम का प्रयोग कर ( फिर अपने सेनापति के साथ मित्रता का लोभ देकर ) प्रलोभन सम्पादित किया । ( तदनन्तर ) बुद्धि को विचलित करने के लिए ( अपने स्वामी के अतुल पराक्रम का वर्णन कर ) भय का प्रदर्शन किया । एवं ( केवल ) बाण प्राप्त करने के इच्छुक तुमने उस प्रकार ( की वाणी ) का प्रयोग किया है जो अन्यायपूर्ण होते हुए भी न्याययुक्त सी प्रतीत होती है । ( अथवा जो वाणी न्याय्य से इतर अन्यायपूर्ण सी प्रतीत होती है ) ।। ७१ ।। व्याख्या की गयी है । विस्तार के साथ उनका विवेचन अपना-अपना लक्षण करते समय किया जायगा ।
प्रबन्धे वक्रभावा यथा - कुत्रचिन्महाकविविरचिते रामकथोपनिबन्धे नाटकादौ पञ्चविधवकता सामग्री समुदाय सुन्दरं सहृदय हृदयहारि महापुरुषवर्णनमुपक्रमे प्रतिभासते परमार्थतस्तु विधिनिषेधात्मकधर्मोपदेशः पर्यवस्यति, रामवद्वर्तितव्यं न रावणवदिति ।