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वक्रोक्तिजीवितम्
यह बात अत्यन्त ही अनुचित है क्योंकि ( लक्ष्मण रूप ) अनुचर के समीप रहने पर प्रधान ( राम ) के उस प्रकार (माणिक्यमृग का पीछा करने) का व्यापार करने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती। (अतः रामायण में किया गया यह वर्णन अनुचित प्रतीत होता है । ) साथ ही ( रामायण में) सर्वातिशायी चरित्र से युक्त रूप में वर्णित किए जाते हुए उन (राम) के प्राणों की रक्षा की सम्भावना उनसे छोटे (भाई लक्ष्मण ) के द्वारा की जाय यह और भी अधिक अनुचित है। इस प्रकार ( इस प्रकरण के अनौचित्य ) का भली भांति विचार कर 'उदात्त राघव ( नामक नाटक ) में (कुशल ) कवि ने बड़े ही कौशल के साथ, "मारीच (रूप मायामयमाणिक्य) मृग के मारने के किए गये हए लक्ष्मण की प्राणरक्षा के लिये ( उनके करुण-क्रन्दन को सुनकर ) सीता ने अधीरता से राम को भेजा था" ऐसे (प्रकरण की) रचना किया है । और इस ढङ्ग के रामायण से परिवर्तित प्रकरण में सहृदय-हृदयाह्लादकारिता ही ( प्रकरण की ) वक्रता है । जैसे कि
किरातार्जुनीये किरातपुरुषोक्तिषु वाच्यत्वेन स्वमार्गणमार्गणमात्रमेवोपक्रान्तम् । वस्तुनः पुनरर्जुनेन सह तात्पर्यार्थलोचनया विग्रहो वाक्यार्थतामुपनीतः।
(भारवि विरचित ) 'किरातार्जुनीयम्' (महाकाव्य) में (भगवान शङ्कर द्वारा प्रेषित) किरात पुरुष की उक्तियों में वाच्य ढङ्ग से केवल अपने बाण के अन्वेषण को ही ( कवि ने ) उपनिबद्ध किया है। किन्तु ( उन दोनों किरातपुरुष तथा अर्जुन की वार्ता के ) तात्पर्यार्थ का सम्यक विचार करने से वास्तव में (सङ्कर का) अर्जुन के साथ युद्ध ही वाक्यार्थ रूप में उपन्यस्त किया गया है।
टिप्पणी-किरातार्जुनीय एक प्रबन्ध काव्य है जिसके भीतर अनेक प्रकरण सम्भव है । यहां जिस प्रकरण को कवि ने प्रस्तुत किया है वह १३ वें तथा १४ वें सर्ग की कथा से सम्बद्ध है। जब अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर इन्द्र उसे भगवान् शङ्कर की तपस्या करने का उपदेश देते हैं तो अर्जुन बिना किसी विषाद के भगवान् शङ्कर को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगता है। उसके घोर तप को देख कर एक दिन सभी देवगण शङ्कर के पास जाते हैं और अर्जुन की घोर तपस्या का वर्णन कर उसका प्रयोजन पूछते हैं । तभी शङ्कर देवताओं को यह बताते हए कि वह मुझे प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहा है वहां से देवों के साथ, अर्जुन का वध करने के लिये जाते हुए मूक दानव ( वराह ) से उसकी रक्षा करने के लिए चल