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वक्रोक्तिजीवितम् प्रतीत्यर्थः । सैव च सहृदयाह्लादकारिता । तस्यां स्पर्धित्वेन यासाववस्थितिः परस्परसाम्यसुभगमवस्थानं सा साहित्यमुच्यते । तत्र वाच. कस्य वाचकान्तरेण वाच्यस्य वाच्यान्तरेण साहित्यमभिप्रेतम् , वाक्ये काव्यलक्षणस्य परिसमाप्तत्वादिति प्रतिपादितमेव (१७)।
(इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि श्रीमान् जी) उस प्रकार का ( न्यूनता और आधिक्य से रहित) साम्य तो दोनों निकृष्ट (शब्द और अर्थ) में भी तो सम्भव हो सकता हैं ( अतः क्या आप उसे भी साहित्य स्वीकार करने को तैयार हैं तो इस बात का उत्तर देने के लिए ) इस प्रकार कहते हैं कि ( नहीं श्रीमान् जी मुझे ऐसा साहित्य नहीं अभिप्रेत है अपितु जो) शोभाशालिता के लिए हो । शोभा सौन्दर्य को कहा जाता है। उस ( सुन्दरता) से जो शोभित अर्थात् प्रशंसनीय होता है वह शोभाशाली ( कहा जाता ) है, उसका भाव शोभाशालिता हुआ उसके प्रति अर्थात् सौन्दर्य द्वारा प्रशंसा-प्राप्ति के लिए यह अर्थ हआ। और इसी को सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करने की योग्यता कहा जाता है । उस ( शोभाशालिता) के प्रति. (परस्पर ) स्पर्घायुक्त जो यह अवस्थिति अर्थात् परस्पर ( न्यूनाधिक्य से रहित साम्य के कारण रमणीय ( शब्द तथा अर्थ दोनों की (स्थिति है वह 'साहित्य' कही जाती है। उसमें शब्द का अन्य शब्दों के साथ, अर्थ का अन्य अर्थों के साथ (परस्पर स्थायित्वरूप ) साहित्य अभीष्ट है, काव्यलक्षण के वाक्य में परिसमाप्त होने से, ऐसा पहले हो ११७ में प्रतिपादित किया जा चुका है। (अर्थात् अनेक शब्दों एवं अनेक अर्थों का समुदायरूप वाक्य ही काव्य होता है अतः वाक्य में स्थित सभी शब्दों एवं सभी अर्थों का परस्पर एक दूसरे शब्द एवं अर्थ से स्पर्धा रूप साहित्य ही अभीष्ट है एक ही शब्द अथवा एक ही अर्थ का नहीं)
ननु च वाचकस्य वाच्यान्तरेण वाच्यस्य वाचकान्तरेण कथं न साहित्यमिति चेत्तन्न, क्रमव्युत्क्रमे प्रयोजनाभावादसमन्वयाच्च । तस्मादेतयोः शब्दार्थयोर्यथास्वं यस्यां स्वसम्पत्सामग्रीसमुदायः स. हृदयाह्लादकारी परस्परस्पर्धया परिस्फुरति, सा काचिदेव विन्याससम्पत् साहित्यव्यपदेशभाग भवति । . (इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि महोदय आप शब्द का ही शब्द के ही साथ तथा अर्थ का अर्थ के ही साथ साहित्य क्यों स्वीकार करते हैं ) शब्द का