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प्रथमोन्मेषः
कहा ही करते थे लेकिन काव्य की कुशलता की पराकाष्ठा को पहुंचने से मनोहर इस ( साहित्य ) का यह वास्तविक स्वरूप हैं इस प्रकार जरा सा भी विवेचन किसी भी विद्वान् ने आज भी ( अभी तक) नहीं किया है । इसलिए अब ( मैं आचार्य कुन्तक ) सरस्वती ( देवी ) के हृदयरूपी कमल के पुष्परस ( मकरन्द ) के कणों के समूह के समान सुन्दर श्रेष्ठ कवियों की . वाणी का यह आन्तरिक रजकता से मनोहर रूप में परिस्फुरित होता हुआ (साहित्य तत्त्व ) सहृदयरूपी भ्रमरों के दृष्टिपथ में लाया जा रहा है । ( अर्थात् उस साहित्य का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है )
साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्रति काप्यसौ । अन्यूनानतिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थितिः ॥१७॥
सौन्दर्य द्वारा प्रशंसा को प्राप्त करने के लिए, इन दोनों ( शब्द और अर्थ ) की अपकर्ष और उत्कर्ष से रहित ( समान रूप से विद्यमान, परस्पर स्पर्धा के कारण ) रमणीय यह कोई ( अलौकिक ही ) अवस्थिति 'साहित्य' ( कही जाती ) है ॥ १७ ॥
सहितयोर्भावः साहित्यम् । अनयो शब्दार्थयोर्या काप्यलौकिकी चेतनचमत्कारकारितायाः कारणम् अवस्थितिर्विचित्रैव विन्यास भङ्गी । कीदृशी-अन्यूनानतिरिक्तत्वमनोहारिणी, परस्परस्पर्धित्व. रमणीया । यस्यां द्वयोरेकतरस्यापि न्यूनत्वं निकर्षों न विद्यते नाप्यतिरिक्तत्वमुत्कर्षो वास्तीत्यर्थः।।
सहित (शब्द और अर्थ ) का भाव साहित्य होता है। इन दोनों शब्द और अर्थ की सहृदयों को आनन्दित करने की कारणस्वरूपा जो कोई अलोकिक अवस्थिति अर्थात् विचित्र प्रकार की ही विन्यास-भङ्गिमा है । कैसी (बिन्यासभङ्गिमा ) ? ( जो) न्यूनता और आधिक्य के अभाव के कारण चित्ताकर्षक अर्थात् परस्पर ( आपस में ) विद्यमान प्रतिस्पर्धा के कारण सुन्दर है। जिसमें ( शब्द और अर्थ ) दो में से एक की भी न्यूनता अर्थात् हीनता नहीं है और न अतिरिक्तता अर्थात् आधिक्य ( उत्कर्ष ही है ( इस प्रकार की स्थिति ही 'साहित्य' होती है )।
ननु च तथाविधं साम्यं द्वयोरुपहतयोरपि सम्भवतात्याह- . शोभाशालितां प्रति । शोभा सौन्दर्य मुच्यते । तया शालते श्लाघते यः स शोभाशाली, तस्य भावः शोभाशालिता, तां प्रति सौन्दर्यश्लाधितां