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प्रथमोन्मेषः
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योग्यमेव सम्पद्यते । यस्मात् स्वभावशब्दस्येदृशी व्युत्पत्तिः - भवतोऽस्मादभिधानप्रत्ययाविति भावः, स्वस्यात्मनो भावः स्वभावः । तेन वर्जितमसत्कल्पं वस्तु शशविषाणप्रायं शब्दज्ञानागोचरतां प्रतिपद्यते । स्वभावयुक्तमेव सर्वथाभिधेयपदवीमवतरतीति शाकटिवाक्या नामपि सालङ्कारता प्राप्नोति, स्वभावोक्तियुक्तत्वेन । एतदेव युक्त्यन्तरेण विकल्पयति
स्वभाव के बिना अर्थात् अपने अपने धर्म ( परिस्पन्द ) के बिना निःस्वभाव ( वस्तु ) कहने अर्थात् अभिधान करने के योग्य नहीं होती अर्थात् ( कही ही ) नहीं जा सकती । वस्तु ( जो ) वाच्य ( कही जाने वाली ) रूप है । क्यों नहीं ( कही जा सकती ) ? क्योंकि उससे रहित अर्थात् उस स्वभाव से रहित अर्थात् वर्जित (वस्तु) निरुपाख्य हो जाती है । उपाख्या से ( जो ) निष्क्रान्त ( है वह हुआ ) निरुपाख्य । ( अर्थात् ) उपाख्या ( का अर्थ है ) शब्द, उसके द्वारा अगोचर हो जाती है अर्थात् अभिधान करने योग्य ही नहीं रह जाती। क्योंकि स्वभाव शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैइससे अभिधान ( कथन ) और प्रत्यय ( ज्ञान ) होते हैं अतः यह भाव हुआ, और स्व का अर्थात् अपना भाव स्वभाव हुआ । तात्पर्य वह कि जिसके द्वारा अपने ( स्वरूप ) का कथन और ज्ञान होता है वह स्वभाव होता है । ) अतः वह ( स्वभाव ) ही जिस किसी पदार्थ की प्रख्या अर्थात् ज्ञान और उपाख्या अर्थात् कथनरूपता में लाने का कारण होता है, उस (स्वभाव) से रहित वस्तु खरगोश की सींगों के सदृश ( जिनकी सत्ता ही ) नहीं होती ) असत्कल्प होकर शब्द और ज्ञान से अगोचर हो जाती है । ( अर्थात् स्वभावहीन वस्तु का न तो ज्ञान ही हो सकता है और न उसे शब्दों द्वारा ही कहा जा सकता है । और ) क्योंकि स्वभाव से युक्त ही ( वस्तु ) सब प्रकार से कथन के योग्य होती है । ( या कही जाती है ) अत: ( आप स्वभावोक्ति अलंकारवादी के मतानुसार ) गाड़ी हाँकने वाले ( शाकटिक ) के वाक्य भी अलंकारयुक्त होने लगेंगे ( क्योंकि वे भी ) स्वभाव के कथन ( स्वभावोक्ति अलंकार ) से युक्त होते ही हैं और इस प्रकार वे भी काव्य कहलाने के अधिकारी हो जायेंगे क्योंकि सालंकार वाक्य ही काव्य होता है, और किसी भी वस्तु का कथन विना स्वभावकथन के किया ही नहीं जा सकता, अतः शाकटिक के वाक्य भी स्वभावोक्ति ( जिसे आप अलंकार मानते हैं उस ) से युक्त होकर सालंकार वाक्य हो जायंगे ( गोर