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प्रथमोन्मेषः ननु च किमिदं प्रसिद्धार्थविरुद्ध प्रतिज्ञायते यद्वक्रोक्तिरेवालंकारो नान्यः कश्चिदिति, यतश्चिरन्तनैरपरं स्वभावोक्तिलक्षणमलंकरणमाम्नातं तच्चातीव रमणीयमित्यसहमानस्तदेव निराकर्तुमाह
(प्रश्न ) आप प्रसिद्ध अर्थ के विरुद्ध इस प्रकार की प्रतिज्ञा क्यों कर रहे हैं कि केवल वक्रोक्ति ही ( एकमात्र ) अलंकार होता है, दूसरा कोई नहीं, क्योंकि प्राचीन ( आलंकारिकों ) ने दूसरा स्वभावोक्तिरूप अलंकार स्वीकार किया है और वह ( स्वभावोक्ति अलङ्कार ) होती भी असन्त ही रमणीय है ? ( अतः आप व्यर्थ प्रतिज्ञा न करें ) इस कथन को न सहन करते हुए उसी ( स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व-कथन ) का निराकरण करते हुए कहते हैं
अलंकारकृतां येषां स्वभावोक्तिरलंकृतिः।
अलंकार्यतया तेषां किमन्यदवतिष्ठते ॥ ११ ॥ जिन ( दण्डी आदि ) अलङ्कार (ग्रन्थ ) की रचना करने वालों के लिए स्वभावोक्ति ( स्वभाव का कथन भी) अलंकार है उनके लिए (फिर) अलंकार्यरूप से कौन सी दूसरी वस्तु शेष रह जाती है। क्योंकि स्वभाव का कथन ही तो अलंकार्य होता है ) ॥ ११ ॥
येषामलंकारकृतामलंकारकाराणां स्वभावोक्तिरलंकृतिः, या स्वभावस्य पदार्थधर्मलक्षणस्य परिस्पन्दस्य उतिरमिधा सैवालंकृतिरलंकरणमिति प्रतिभाति, ते सुकुमारमानसत्वाद् विवेकक्लेशद्वेषिणः । यस्मात् स्वभावोक्तिरिति कोऽर्थः ? स्वभाव एवोच्यमानः स इव यद्यलंकारस्तत्किमन्यत्तद्व्यतिरिक्तं काव्यशरीरकल्पं वस्तु विद्यते यत्तेषामनंकार्यतया विभूष्यत्वेनावतिष्ठते पृथगवस्थितिमासा. दयति, न किंचिदित्यर्थः ।।
जिन अलंकारकृतों अर्थात् अलंकार (अन्य ) की रचना करने वालों के लिए स्वभावोक्ति अलंकार है; अर्थात् जो स्वभाव की अर्थात् पदार्थ के धर्मरूप स्वभाव की उक्ति अर्थात् कथन है वही ( जिनको ) अलंकृति अर्थात् अलंकार प्रतीत होता है वे सुकुमार बुद्धि होने के कारण विवेक के कष्ट से द्वेष करने वाले हैं (तात्पर्य यह कि वे निर्बुद्धि हैं उनमें विवेक करने की शक्ति का अभाव है )। क्योंकि स्यभावोक्ति का क्या अर्थ होता है ? कहां जाने वाला स्वभाव ही तो ( स्वभावोक्ति होती है ) और यदि वही अलंकार