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वक्रोक्तिजीवितम्
पिस गए पर्वतों पर ( अपने ) कन्धों को खुजलाने का आनन्द नहीं ( प्राप्त ) किया, ( तथा अपने ) खुरों के कुहरों से विगलित होते हुए तुच्छ जल वाले समुद्रों में ( जिसने ) स्नान नहीं किया, ( एवं ) पोतने मात्र के लिए उपयुक्त पाताल के कीचड़ में ( जिसने ) लोटने का आनन्द नहीं प्राप्त किया, ( ऐसे ) वह ( अपनी ) विभुता के कारण बाधित इच्छा वाले वराह ( रूपधारी विष्णु ) सर्वोत्कृष्ट हैं ।। ३० ।।
अत्र च तथाविधः पदार्थ परिस्पन्दमहिमा निबद्धोदयः स्वभावसंभविनस्तत्परिस्पन्दान्तरस्य संरोधसंपादनेन स्वभावमहत्तां समुल्लासयन् सहृदयाह्लादकारितां प्रपन्नः । यथा च
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इस श्लोक में ( कवि ने ) उस प्रकार की पदार्थ ( वराहरूपधारी विष्णु) के व्यापार की महिमा का वर्णन प्रस्तुत किया है जो स्वभाव से ही उत्पन्न होने वाले उस ( पदार्थ ) के अन्य व्यापारों के निरोध के सम्पादन के द्वारा ( उस पदार्थ के ) स्वभाव की महत्ता को स्फुरित करता हुआ सहृदयों को आनन्दित करता है । और जैसे ( महाकवि कालिदास ने रघुवंश १४ । ७० में राम के द्वारा निर्वासित गर्भवती सीता के रुदन का अनुसरण करते हुए वाल्मीकि मुनि के उसके पास जाने का वर्णन करते हुए कहते हैं कि - )
तामभ्यागच्छद्रुदितानुसारी मुनिः कुशेम्माहरणाय यातः । निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः ॥ ३१ ॥
कुश और समिधा लाने के लिए गए हुए ( वे ) मुनि ( सीता के ) रुदन का अनुसरण करते हुए उसके पास पहुँचे जिनका निषाद के द्वारा विद्ध किए पक्षी ( क्रौंच ) के दर्शन से उद्भूत शोक ( मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रोश्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥ वा० रा० बालकाण्ड २।१५ इस प्रकार के आदि ) श्लोक के रूप में परिणत हो गया
था ।। ३१ ।।
अत्र कोऽसौ मुनिर्वाल्मीकिरिति पर्यायपदमात्रे वक्तव्ये परमकारुणि कस्य निषादनिर्भिनशकुनिसंदर्शन मात्र समुत्थितः शोकः श्लोकत्वमभजत यस्येति तस्य तदवस्थजनकराजपुत्रीदर्शन विवशवृन्तेरन्तःकरणपरिस्पन्दः करुणरसपरिपोषाङ्गतया कवेरभिप्रेतः ।
सहृदयहृदयाह्लादकारी
यथा च
इस श्लोक में यह कौन मुनि ( थे केवल यह बताने के लिए ) वाल्मीकि इसी पर्यायवाची पदमात्र के कहने के स्थान पर ( कवि ने जो दूसरे ढंग से