________________
प्रथमोन्मेषः
४१
( स्वयं ) प्रकट हो जायगा । अतः अब अतिप्रसंग ( उसके यहाँ विवेचन ) की आवश्यकता नहीं ( यथावसर उसका विवेचन किया जायगा । )
अर्थश्च वाच्यलक्षणः कीदृशः - काव्ये यः सहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः । सहृदयाः काव्यार्थविदस्तेषामाह्लादमानन्दं करोति यस्तेन स्वस्पन्देनात्मीयेन स्वभावेन सुन्दरः सुकुमारः । तदेतदुक्तं भवतियद्यपि पदार्थस्य नानाविधधर्मखचितत्वं संभवति तथापि तथाविधेन धर्मेण संबन्धः समाख्यायते यः सहृदयहृदयाह्लादमाधातुं श्रमते । तस्य च तदाह्लादसामर्थ्यं संभाव्यते येन काचिदेव स्वभावमहता रसपरिपोषाङ्गत्वं वा व्यक्तिमासादयति । यथा -
( अभी तक काव्य में शब्द किस स्वरूप का होना चाहिए, उसका निरूपण कर अब अर्थ के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करते हैं ) और वाच्यरूप अर्थ किस प्रकार का ( काव्यमार्ग में इष्ट है ) - काव्य में जो सहृदयों के आह्लादजनक अपने स्वभाव से सून्दर ( होता है ) । सहृदय अर्थात् काव्य के अर्थ को जाननेवाले उनके आह्लाद अर्थात् आनन्द को ( उत्पन्न ) करता है जो उस अपने स्पन्द अर्थात् आत्मीय स्वभाव से सुन्दर अर्थात् सुकुमार ( अर्थ काव्य में अभिप्रेत हैं ) इस प्रकार यह कहा गया है कि - यद्यपि पदार्थ का नाना प्रकार के धर्मों से युक्त होना सम्भव है फिर भी ( काव्य में पंदार्थ के ) उस प्रकार के ( विशेष ) धर्म के साथ सम्बन्ध का भली प्रकार वर्णन किया जाता है जो सहृदयों के हृदयों में आनन्द उत्पन्न करने में समर्थ होता है । और इस प्रकार के वर्णन द्वारा उस ( पदार्थ ) का वह ( सहृदयों के) आह्लाद का सामर्थ्यं सम्भव हो जाता है जिससे कोई ( अपूर्व, अनिर्वचनीय ) ही ( पदार्थ के ) स्वभाव की महत्ता अथवा ( उसकी ) रस के परिपोष में अङ्गता व्यक्त हो जाती है । जैसे
दंष्ट्रापिष्टेषु सद्यः शिखरिषु न कृतः स्कन्धकण्डूविनोदः सिन्धुष्वङ्गावगाह: खुरकुहरगल त्तच्छतोयेषु नाप्तः । लब्धाः पातालपक्के न लुठनस्तयः पोत्रमात्रोपसुक्ते येनोद्धारे धरिष्याः स जयति विभूताविनितेो वराहः ॥ ३० ॥
( विष्णु भगवान् के वाराहावतार काल का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ) जिस ( वराहरूपधारी विष्णु) ने पृथ्वी का (जिसे हिरण्याक्ष पाताल उठा ले गया था) उद्धार करते समय ( अपने ) दाढ़ ( की चोटों ) से