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* तारण-वाणी*
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हैं. ऐसे सिद्धांत ग्रन्थों को जो बालस छोड़कर नित्य ही पढ़ते हैं, सुनते हैं, और भावना करते हैं अर्थात् तदनुसार प्रवृत्ति करते हैं, वे तो साश्वत स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं, मोक्षमार्गी हैं तथा जो उपरोक्त ऐसे सिद्धांत ग्रन्थों को जिनमें कि रत्नत्रय का सार है उनको न देखता है, न मानता है, न सुनता है, न पढ़ता है, न चितवन करता है और न भावना करता है वह मिध्यादृष्टि है, ऐसा जानना।
हो सकता है कि इसलिये श्रागम शास्त्र का सचिवान न होने तक मात्र मूर्तिदर्शन पूजन की श्रेणी वालों को पात्रों में सम्मिलित न किया हो। क्योंकि पात्र प्रकरण की गाथा १२० के बाद १२१ व १२२ में सम्यग्दर्शन वाले मुनियों का वर्णन किया और उन्हें विशेष पात्र कहा है। जबकि गाथा १२२ के चौथे चरण (अन्त में) यह भी कहा है कि-'ते गुण हीणो दु विवरीदो' जिस मुनि में ये ऊपर कहे हुए गुण नहीं है वह उससे विपरीत अर्थात् अपात्र है । तो जबकि गुणहीन मुनि को भी श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पात्र न मानकर अपात्र कहा तब गुणहीन श्रावकों को व कैसे पात्रश्रेणी में मान लेते ? क्योंकि उनकी मान्यता तो अवतसम्यग्दृष्टि, देशवती श्रावक, महाव्रती मुनि और आगम-शास्त्र का रुचिवान, इनको पात्र मानने की थी।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जो रयणसार जी ग्रंथ में गाथा १२३ में जो भागम रुचिवान को पात्र कहा जबकि औरों को नहीं यानी, पागम रुचिवान न हो मात्र मूर्ति का दर्शन पूजन अथवा कंवल बहिरात्मभावों से श्रावक व मुनि तक के क्रियाकाण्डो को भी पात्रश्रेणी में नहीं लिया जो इस विचार से ठीक भी बैठता है कि पात्र उसे ही माना जाता है जिसके परिणाम निर्मल रहते हो अथवा बहिरात्मभाव जनित मलिन-राग, द्वेष, मोह, कषाय, विषय, पंचपाप जोकि असंयम के कारण हैं, उन्हें शास्त्र स्वाध्याय करते हुए कम करने में प्रयत्नशील होकर निर्मल परिणामों की
ओर अग्रसर हो रहा हो, कि जो परिणाम इस जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान से निकाल कर चतुर्थ गुणस्थान में पहुँचा कर अवतसम्यग्यदृष्टि बना देते हैं। अतएव शास्त्र स्वाध्याय करने पर ही यह जीव पात्र बन सकता है, बिना शास्त्र स्वाध्याय के नहीं। क्योंकि यह निश्चित है किशास्त्र में रुचि रख कर स्वाध्याय करने वाले के परिणामों में अवश्य ही निर्मलता आती ही है । जबकि मात्र क्रियाकांड-दर्शन, पूजन, इकात, उपवासादि व्रतों को करने वालों में निर्मलता तो दूर रही कठोर परिणामी ही पाये जाते हैं चाहे वे दि. जैन अथवा तारणपंथी कोई भी क्यों न हो। श्री कुन्दकुन्द स्वामी गाथा ६७ में कहते हैं कि हे मुमुक्ष !
पावारंमणिवित्ती, पुण्णारं मे पउत्तिकरणं पि ।
णाणं धम्मज्झाणं, जिणमणियं सन्नजीवाणं ॥१७॥ अर्थ-पापकार्य की निवृत्ति और पुण्यकार्यों में प्रवृत्ति का मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है ।