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* तारण-वाणी *
दढ जमुद्दा इंदियमुद्दा कसायद मुद्दा | मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ||१९||
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अर्थवयवत् संयम सहित होय, इन्द्रियां वशीभूत हों और कषायभाव न हों तथा ज्ञान स्वरूप आत्मा में लीनता - ध्यानस्थपना ऐसा मुनि होय सो ही जिनमुद्रा है ।
इस तरह चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, सिद्धप्रतिमा, जिनबिंब, अरहन्तमुद्रा तथा जिनमुद्रा इन सबका ही वास्तविक स्वरूप श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कथन किया है । अतएव हम जबकि अपने को कुन्दकुन्दान्नायी मानते हैं तब तो हमें इस तरह ही मानना चाहिये !
अन्यथा इनका आम्नायी न मानकर जिन्होंने धातु- पाषाण की मूर्ति में ही जिनप्रतिमा, सिद्धप्रतिमा, जिनबिंब, अरहन्तमुद्रा तथा जिनमुद्रा इन सबका स्वरूप बताया हो उनका ही आम्नायी मानना चाहिये । हम अपने को जिन का आम्नायी कहें और उनकी बात न मानें यह कैसे माना जा सकता है ?
१७वीं गाथा जिसमें जिनबिंब का स्वरूप आचार्य को कहा है उसमें प्रणाम करो, विनय करो, वात्सल्य (प्रेम) करो तथा 'सव्वं पुज्ज' यानी सब प्रकार से पूजो । यदि अष्टद्रव्य से पूजा कराना होती तो गाथा में यह शब्द होता कि 'अष्टद्रव्य पुज्ज' लेकिन उन्हें तो अष्टद्रव्य की पूजा से कोई प्रयोजन ही न था, पूजा का मतलब होता है कि उनके पूज्य गुणों में अर्थात् उत्तम गुणों में पूज्यभाव - भक्तिभाव रखना जो आचायों में सब तरह से पूज्यभाव यानी भक्तिभाव रखना, न कि द्रव्य से पूजा करना ।
प्रतिमा का दर्शन नहीं, शास्त्र स्वाध्याय ही सम्यग्दर्शन का मूल कारण है ।
श्री सार जी गाथा १२३ में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पात्रों के भेद कहे हैंअविरददेसमहन्त्र आगमरुणं विचारतच्चण्हं । पत्तंतरं सहस्सं णिद्दि जिणवरिंदेहिं ॥ १२३ ॥
अविरत देश महाविरत, श्रुति रुचिरत्व विचार | पात्र नु अंतर सहस गुन, कहि जिनपति निरधार ॥
अर्थ - श्रविरतसम्यग्दृष्टि, देशप्रती - श्रावक और महाव्रतियों के भेद से श्रागम में रुचि