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• तारण-वाणी*
निश्चय तथा व्यवहार धर्म में भी
सच्ची जिन-पूजा का स्वरूप श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी ने रयणसार जी में कहा है
सम्मत्तरयणसारं मोक्खुमहारुक्खमूलमिदि मणियं । तं जाणिज्जइ णिच्छयववहारसरूवदोमेदं ॥४॥ भयविसणमलविवज्जिय संसारसरीरभोगणिविण्णो । अटगुणंगसमग्गो दंसणशुद्धो हु पंचऽगुरुभत्तो ॥ ५॥ णियसुद्दप्पणुरत्तो बहिरप्पावच्छवज्जिओ गाणी ।
जिणमुणिधम्म मण्णइ गयदुक्खी होइ सद्दिट्टी ॥ ६॥ अर्थ-सम्यक्तरत्न ही सार है, यही मोक्षरूप महावृक्ष का मल कहा है । हे भव्य ! निश्श्य और व्यवहार ऐसे इसके दो भेद जानो। सात भय, सात व्यसन, शंकादिक पच्चीस दोप रहित तथा संसार, शरीर, भोगों से विरक्तभाव और निःशंकादिक आठ गुणों सहित पंच परमेष्ठी में भकि. भावना रखना शुद्ध दर्शन है। जो विचारशील भव्यात्मा अपनो आत्मा के शुद्ध भाव में अनुरक्त (तन्मय) होता है और परपदार्थ-जन्य पुद्गलों की शुभाशुभ पर्यायों से विरक्त होता है. जो श्री जिनेन्द्र भगवान, निग्रंथ गुरु तथा जिनधर्म को श्रद्धाभाव भक्ति-पूवक मानना है वह संसार के समस्त प्रकार के दुःखों से रहित सम्यग्दृष्टि है ।
मय मूढमणायदणं संकाइ वसण भयमईयारं ।
जेसिं चउडालेदो ण संति ते हुँति संहिट्ठी ॥ ७ ॥ अर्थ-जिनकं आठ मद, तीन मढ़ता, छह अनायतन, आठ शंकादि दोष, सात व्यसन, सात प्रकार के भय, पांच प्रतीचार; ये चवालीस दूषण नहीं है वे पुरुष सम्यग्दृष्टि है ।
उद्दयगुणवसणभयमलवेरग्गइचारमत्तिविग्धं वा । एदे सत्तत्तरिया दसणसाबयगुणा मणिया ॥ ८ ॥