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* तारण- वाणी *
हो जाता है उसका यह सागरों की आयु बंध करने वाला संसार विलीयमान हो जाता है, संसार भ्रमण छूट जाता है ।
१७० -- गतिक्षीण, खातिकक्षीण, सागरक्षीण, कालक्षीण, भ्रमणक्षीण संसारनो ढलनि विलयतितद् 'मुक्तिस्वभाव' मुक्ति: सिद्धगतिगमनम् । श्री तारणस्वामी 'मुक्तिस्वभाव' का अर्थात् भावमोक्ष या जीवनमुक्त दशा का माहात्म्य कहते हैं कि- जो मानव 'मुक्तिस्वभाव' को उत्पन्न कर लेते हैं उनका सब प्रकार से संसार भ्रमण छूट जाता है और वे भव्य संसार-मुक्त होकर सिद्धगति - मोक्ष धाम में गमन कर जाते हैं ।
१७१ – मिध्या सहकार तद् विलखते । जो अज्ञानी मानव मिध्यात्व के सहकारी अर्थात मिध्यात्वी बने रहते हैं वे इस चतुर्गति चौरासी लाख योनियों के दुखों को भोगते हुए अनन्तकाल पर्यन्त भ्रमण करते हुए बिलखते रहते हैं ।
१७२ – राजू तीन सौ तिरतालीस, तत् संसार अनन्त जीव अनन्त भ्रमण स्वभाव | इस ३४३ घनाकार राजू संसार में अनन्त जीव अनन्त भ्रमण अपने मिध्यातपूर्ण अज्ञान स्वभाव के कारण कर रहे हैं । श्राचार्य कहते हैं 'जो सरद है और की और, सो मिध्यात्व लाभ की दौर' र्थात् विपरीत मान्यताओं का नाम ही मिध्यात्व है अतः सम्यग्ज्ञान पूर्वक वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानना चाहिए । (मोक्षमार्ग प्रकाश)
१७३ - भय विली ऊँच-नीच न दृश्यते, खांडो न दृश्यते । जो मानव कर्मसिद्धांत पर अटल होकर निर्भय रहते हैं व नीच ऊँच की भावना छोड़कर समभाव वाले हो जाते हैं वे संसार की नीचगति रूप खांडे - गड्ढे में नहीं गिरते ।
१७४ – उत्पन्न उत्पन्न अर्कस्य अकं । उत्पन्न हुए आत्मप्रकाश से प्रकाश की वृद्धि स्वयं होती जाती है। अग्नि में ईंधन मिलते जाने से जैसे अग्नि बढ़ती जाती है उसी तरह आत्मप्रकाश में शुभ भावनायें वृद्धि की कारण हैं ।
१७५ - [जननाथ रमन अके रंज रमन आनन्द अर्क, अनन्त उत्पन्न स्वभाव । आत्मा में परमात्मभाव स रमण करने पर आनन्द का प्रकाश होता है अथवा उस प्रकाश में आनन्द जाप्रत होता है, उस आनंद में रमण करने से उस आनंद प्रकाश में अनंत उत्पन्न - अनन्त चतुष्टय उत्पन्न जाते हैं ।
१७६—समय न्यान सहावेन समय संजुत्ता समय न्यान संजुत्त । श्रात्मज्ञान स्वभाव से ही आत्मदर्शन होता है । और आत्म - दशन होने पर वह आत्मा केवलज्ञानी हो जाती है। १७७ - जिनवर स्वामी तू बड़ो, मैं जिनवर हों भलो । श्री तारन स्वामी अपने इस वचन
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