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* तारण-वाणी*
१६२-उत्पन्न प्रायरन साधन अर्हन्त सिद्ध । सम्यक्ती-पुरुष अपने आत्माचरण की साधनापात्मध्यान की साधना में अपने आप में अर्हन्त, सिद्ध की भावना भाता है तथा पुरुषार्थ की सिद्धि में स्वयं अहन्त व सिद्ध बन जाता है-प्रात्मा से परमात्मा या नर से नारायण हो जाता है । यही मान्यता जैनधर्म की क्या, प्राय: सभी धर्मों की है। किन्तु कथनशैली तथा साधनाओं में अन्तर हो गया है। इसीलिए यथार्थ मोक्षमार्ग का पाना कठिन हो गया है । नकल की वाहुल्यता ने असल को छिपा दिया है। नकल की मान्यताओं ने असल की मान्यता (आत्म मान्यता) से बंचित कर दिया है । भगवान विराजमान हैं घट में, ढूंढ रहे हैं बाहर । श्री कुंदकुंद स्वामी कहते हैं
केई उदास रहे प्रभु कारण, केई कहें उठि जाय कहीं को। कई प्रणाम करें घण मूरत, केई पहार पढे चढ़ छींके || केई कहें आसमान के ऊपर, कई कहें प्रभु हेठ जमी के । मेरो धनी नहिं दूर देशांतर, मोहि में है मोहि सूझत नीके ।।
( नाटक समयमार बनारसीदास ) १६३-अर्क भूले, नक ठिदि परे। आत्मप्रकाश या आत्मज्ञान को भूल कर ही अज्ञानी मानव नकभूमि में पड़ रहा है अथात् संसार में नारकीय दुःख भोग रहा है । आत्मप्रकाश,
आत्मज्ञान, आत्म-आराधना, प्रात्म--पूजा, आत्म-भक्ति, आत्म--भावना, आत्माचरण, आत्मप्रवृत्ति, आत्मा में परमात्मा, घट में भगवान, आत्मा सो परमात्मा, भगवान सरूप आत्मा. हृदय में विराट रूप का दर्शन, सोऽहं, राम में भक्ति, कृष्ण की शरण, जिनवंदना, जिनदर्शन, जिनपूजा, अनलहक व आध्यात्मिकता इन मब का अर्थ एक ही है । तात्पर्य यह कि १००८ नाम प्रात्मा के ही हैं, व्यक्तिविशेष के नहीं । भगवान महावीर जैनियों के, भगवान बुद्ध बौद्धों के, भगवान राम, कृष्ण हिन्दु के, ईमा ईसाइयों के, और खुदा मुसलमानों के बटवारे में भले ही आजायं; किन्तु १००८ नाम वाली आत्मा किसी के भी बटवारे में नहीं आ सकती । यह तो सूर्य की भाँति बिना भेदभाव के सर्वत्र प्रकाश कर रही है। जिसमें जितनी बुद्धि, ज्ञान, बल वा साधना हो उतना लाभ इसके प्रकाश का हर काई ले सकता है और ले रहे हैं। मनुष्य तो क्या, पशु पक्षी भी आत्मप्रकाश से लाभ लेने के अधिकारी हैं और लिया भी है।
अधिक क्या कहें । 'आत्मधर्म मानें मानवधर्म मानवधर्म माने आत्मधर्म' यह आत्मप्रकाश की परिभाषा है । और आत्मप्रकाश हा मोक्षमाग है । बाह्य क्रियाकाण्ड मोक्षमार्ग नहीं पुण्यमार्ग है । भगवान का नाम महावार नहीं, महावार नाम तो नामकर्म के उदय से होने वाले उस शरीर का था कि जिस शरीर से छूटन क लिए उन्हें नामकर्म के नाश करने