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*तारम-पानी१४४-भयविनास भवियन, न्यानी ! भन्मोय नन्द मानन्द । हे भन्यजन मानी पुरुषो! सर्व प्रकार के भयों का नाश एक मात्र प्रात्मीक भानन्द में लय होने पर ही होता है।
१४५-वैरागह हो तिविहि संजुत्तु, प्रन्थ मुक्कु निर्मन्य मुनि । संसार, शरीर और भोग कहिए पंचेन्द्रियों के विषय इन तीनों में वैराग्य होने पर ही परिग्रह का त्याग होना वास्तविक निग्रंथपना है अन्यथा द्रव्यलिंगीपना ही जानो।
१४६-जिननन्द नन्द आनन्द मओ, जिन उवनउ सिद्ध सहाउ । अन्तरात्मानंद के आनन्द से भरभर भात्मा का होना ही अपनी आत्मा में सिद्धस्वरूप को जाप्रति करने या प्राप्ति करने का एकमात्र उपाय है, कारण है।
१४७-भयविनस्य भवियन, अमिय अन्मोय व्यान विन्यानं । भेदज्ञान के द्वारा अमिय कहिए मात्मा में प्रीति करने पर-आत्मानंद में मग्न होने वाले को कोई भय नहीं रहता । वह कर्म सिद्धांत का ज्ञाता होने से भलीप्रकार जानता है कि जो भवितव जा जीव की, जा विधान करि होय । जौन क्षेत्र, जा काल में, सो अवश्य करि होय ।। उसे ऐसा दृढ़ निश्चय रहता है। ऐसा जान कर वह निशंक निर्भय रहता है।
१४८-संसार उत्पन्न भ्रमण स्वभाव-मनुष्य के अपने मन की चंचलता अथवा राग द्वेष मोह की प्रबलता व संकल्प विकल्प मन में बने रहना इत्यादि केवल मन के दोषों के कारण ही यह प्राणी संसार में उत्पन्न-जन्म मरण कर रहा है ।
१४६-संसार सरणि स्वभाव-संसार परिवर्तनशील है ।
१५०-उत्पन्न हितकार सहकार ति अर्थ-रत्नत्रय कहिए-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को उत्पन्न करो और इसे ही हितकारी समझ कर उसे साथ में रखो, साथी रहो।।
१५१-केवलि उक्त यह आदि आहि देखउ, नाहीं खांडो देखउ । सर्वज्ञ केवली का उपदेश ही जिसमें केवल आत्मधर्म को ही प्रकाशित करना कहा है देखो। यदि आत्मधर्म को नहीं देखोगे तो संसार रूपी खांड़े में भ्रमण करना पड़ेगा। आत्मधर्म हो आदि है-सनातन हैसर्वमान्य है।
१५२-तद्स्वभाव अर्क न दृश्यते, तद् नकं । जो आत्म-स्वभावरूपी प्रकाश को नहीं देखते वे संसार के नक-दुखों को भोगते हैं । "आत्मप्रकाश यानी आत्मधर्म"
१५३-अकस्य विकल विकत्रय । जो मानव अपनी आत्मा में विकलभाव रखते हैं-मार्त ध्यान रखते हैं वे विकलत्रय योनि को प्राप्त होते हैं।
१५४-अर्कस्य भावरण तद थावर । जो मानव अपनी आत्मा में मोहरूपी मिथ्यात्व तीव्र आवरण कर लेते हैं वे पच स्थावर योनि को प्राप्त होते हैं ।