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* तोरण-वाणी.
१३३-अर्क उत्तु जिन अर्क उवन, सुइ साहि कमल निर्वान । अर्क-प्रकाश, अंतरात्मा का प्रकाश करने पर हे भव्य ! तू साहि अर्थात् सर्वोत्कृष्ट परमात्मपद पाकर मुक्त हो जायगा। १३४-तं न्यान विन्यान सुव सुवन रमाई रे ।
अन्मोय कलन कर्न सिद्धि लहाई रे ॥ हे भव्य ! तू भेदज्ञान के बल से आत्मज्ञान प्राप्त कर व उसी में रमण कर । ऐसा करने ने ध्यान में प्रीति होगी व तेरे परिणाम-भाव सिद्धि अर्थात् सफलता को प्राप्त होंगे। . १३५-तं न्यान विन्यान सहावे उवन रमाई रे ।
सुइ समय उवन वीर ! मुक्ति लहाई रे ॥ तू भेदज्ञान के स्वभाव से अरहंत के उपदेश में रमण कर । उस उपदेश में रमण करने से हे वीर ! तुझे आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी-जाग्रति होगी और समय पाकर तू मोक्षपद को प्राप्त. कर लेगा। अम्हंत उपदेश ही कल्याणकारी है।
१३६-'जिन' वंदिहउ सुइ नदिहउ, सुइ रंज रमन नंद सहज मुक्ति जिन । बंदिहउ सुइ नंदिहउ ॥
___ यों तो आत्मा प्रत्येक प्राणीमात्र में है, चारों गतियों में है । किंतु जिस मानव की आत्मा अपने वहिरात्मभावों को छोड़कर अन्तरात्मा होकर कमों की निर्जरा करने में समर्थ हो जाती है उसे 'जिन' कहते हैं । यह जिनपद चतुर्थ गुणस्थान में ही प्राप्त हो जाता है। जो चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान पर्यन्त 'जिन' पद कहा गया है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलियों को जिनवर' तथा श्री तीर्थंकर को · जिनवरेन्द्र ' कहते हैं । इस तरह · जिन' • जिनवर' जिनवरेन्द्र' ये तीन श्रेणियां कही गई हैं-मानी गई हैं। - श्री तारण स्वामी कहते हैं-हे भव्यो ! 'जिन' वदिहउ, सुइ नंदिहउ । अर्थात स्वयं की
आत्मा जिसने कि जिनपद को अपने भेदज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है उस 'जिनपद' की वंदना करने पर हो (गुणगान करने पर ही) तुम्हें आनन्द मिलेगा, कल्याण का मार्ग बनेगा, मुक्ति पाओगे। फंसा है वह आत्मा ? जिसने कि 'जिनपद' प्राप्त कर लिया है, आनंदरूप है, आनन्द में रमण करने वाला है, और सहज मुक्ति है अर्थात् स्वभाव से ही मुक्तस्वरूप है । हे भव्य ! ऐसे 'जिन' की वंदना ही आनन्ददायिनी है।
" वंदिहउ सुइ नंदिहल,
'जिन' वंदिहउ सुइ नंदिहउ ।" । ... श्री तारण स्वामी ने उपरोक्त प्रकार से सम्यक्ती हो जाने वाली अपनी आत्मा की वंदना करने वालों को · जिनवंदना' कही है । साक्षात् श्री अरहंत अथवा उनकी प्रतिमा की वंदना को