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* तारण-वाणी *
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सिद्धांत | और अधिक क्या कहें, वे तो उस अरहन्त अवस्था में ही हमसे और हमरी पूजा-भक्ति से निस्पृह हो गए थे। हमारी पूजा-भक्ति से संतुष्ट होकर उन्होंने उपदेश नहीं किया था और वे केवल हम जैनों के हो अरहन्त भगवान थे । अरहन्त तो वे एकमात्र अपने लिए ही बने थे, उस अरहन्त स्वभाव से ही उनकी वाणी “भवि भागन वश जोगे वशाय" सबको खिरी थी ।
५१ – तत्काल रमन - दर्स - अदर्सदर्स, शब्द- शब्दशब्द, वयन- श्रवयनवयन, इच्छ-अइच्छइच्छ, लख्य- अलख्यलख्य, पेख्य- अपेख्य पेख्य, रमन -अरमन रमन, गहन- अगहनगहन, धरन - अधरनधरन, सहन - असहनसहन, साहन- असाहनसाहन, अवकाश- अनंत अवकाश, समय-असमयसमय, श्रन्मोद--परमश्रन्मोद, खिपक- परमपिक, मुक्ति-परममुक्ति, सुख- परमसुख । इसमें बताया है कि श्रात्मरमण होने पर उपरोक्त इन सब बातों का लाभ तत्काल आत्मा में झलक जाता है । उपरोक्त वाक्यों का अर्थ प्रायः स्पष्टसा ही है कि आत्मरमण के प्रभाव से मुक्तिस्वरूप सुखस्वरूप इत्यादि अन्तरंग के श्रानन्दप्रदायक समस्त भाव जाग्रत दशा को प्राप्त हो जाते हैं ।
५२–तत्काल उत्पन्न न्यान विन्यान- भय विनस्य-भय, शल्य, शंक विलयंति । भेदज्ञान होने पर तत्काल ही भय, शल्य और समस्त प्रकार की शंकायें विलीयमान हो जाती हैं ।
५३ - अर्क सुभाव दिष्टि-३ सुभाव | आत्मप्रकाश को स्वाभाविक दृष्टि में यह माहात्म्य है कि उसके प्रकाश में इष्ट स्वरूप स्वभाव जाग्रत हो जाता है अथात् उसकी स्वाभाविक परिणति इ कहिए कल्याण रूप हो जाती है। जबकि आत्मप्रकाश के अभाव में मनुष्य की समस्त परिण तियां चाहे वे पापरूप हों या पुण्यरूप सभी शुभाशुभ बंध करके संसार - भ्रमण के कारण स्वरूप रहती हैं।
५४ - परमेष्टि गमन तं न्यान रमन, तं गम्य अगम्य विलसंतु । परमेष्टि-- श्रात्मा के लिए जो कल्याणकारी सी ही परम - उत्तम, इष्ट कहिए हित रूप ऐसी परमेष्टि स्वरूप जो तेरी अंतरात्मा . उसमें गमन कर अर्थात् आत्म- रमण कर यही तेरा ज्ञान - रमण होगा । और तू अगम्य को गम्य करके याने अपने आप में परमात्मपद को प्राप्त कर उसमें विलास करंगा |
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५५ – दिप्त शब्द विवान उत्पन्ना दाता देउ । जो प्रकाशमान वचन ( शब्द- ब्रह्म ) रूपी विवान का दाता सो हो देव है | ऐसा देव व्यवहारनय से अरहंत और निश्चयनय से अपने आप की आत्मा को ही जानो ।
५६ – तुम्हरी श्रखय रमन रैनारी, हो न्यानो भव-भंवर विनट्ठी । भो ज्ञानी ! तुम्हारी अक्षय जो आत्मा उसमें रमण स्वरूप जो रैनारी कहिए प्रवृत्ति वही तुम्हारे भव - भ्रमण का विनाश करेगी । अर्थात् - अन्तर आत्मा की प्रवृत्ति और रमणता ही भव-समुद्र की जो भंवर उस भंवर में डूबते हुए प्राणियों को निकालने में समर्थ है
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