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* तारण-वाणी
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हुये बिना कहने भर की उदासीनता तथा दिखाने भर का वैराग्य-भेष होगा । लोभ केवल धन का ही नहीं, धन का, मान बढ़ाई का, सुखों का, स्वर्गादि पाने इत्यादि सभी बातों का ।
३-मन मक्कड़ चवल सहावं-अवम जानेहिः । व्यवहारिक अर्थ में कुशील को अवभ या श्रब्रह्मचर्य कहा जाता है। यहाँ कहते हैं कि-मन के चंचल स्वभावानुसार उसे माया जाल में फंसाना ही कुशील है, जबकि मन को एकाग्र करके प्रात्मस्थ करना शील है।
४-आसन्न भव्य पुरिसा-ज्ञान वलेन निव्वुए जंती । निकट संसारी भव्य-जीव ज्ञान के बल से मोक्षमार्गी बन कर मोक्ष जाते हैं, जबकि दीर्घ संसारी केवल क्रियाकांडी बने रहते हैं।
५-मास च असुहभाव । खोटे भाव रखना मांस के दोष समान हैं।
६-गय संकप्प वियप्पं । हे भव्यो ! संकल्प विकल्पों को छोड़ो, तभी तुम्हारा कल्याण होगा यह भव और परभव सुखरूप बनेगा।
७-ज्ञान समुच्चय भनियं । सदहनं रूव भेदविज्ञानं । श्री तारन स्वामी कहते हैं कि सुनोज्ञान का सार यही है कि भेदविज्ञान के द्वारा अपने श्रात्म-स्वरूप को जानो और उस आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो-मनन करो--ध्यान करो और उसी के आनंद का पान करो।
८-ज्जय रत्तो-तिरिय दुःख वीयम्मि। पज्जय कहिए शरीरादि पर्यायार्थिक भावों में तन्मय होना तिर्यश्चगति के दुखों को पाने का वीज है-मूल कारण है।
-अनेय कष्ट अनिष्ट, गारव भावेन निगोय वासम्मि। अभिमान करने वाला मनुष्य अनेक प्रकार के अनिष्टरूप कष्टों को भोगकर अन्त में निगोद-वास करता है।
१०-मन स्वभाव पर पिच्छं, पज्जय रतो सु दुग्गए सहियं । जो अपने मन स्वभाव को पर पर्यार्थिक पदार्थों में लगा लेता है-तन्मय कर लेता है सो दुर्गति के दुःखों को भोगता है ।
११-जन कल मन रज विलंतु सुई दर्शन मोहंध विलंतु। जो मानव-जन रंजनराग, कलरंजन दोष, और मनरंजन गारव को विलीयमान कर देता है वही दर्शनमोहनीय का नाश कर सकता है।
१३-संसार सरनि विरयं-कम्मक्खय मुक्ति कारणं शुद्धं । जो मानव मित्र, नी, पुत्र, धन-धान्यादि समस्त सांसारिक बातों से विरक्त होकर इन सब का शरण-आश्रय छोड़ देता है, वही कमों को क्षय करके आत्मा की शुद्ध अवस्था रूप मुक्ति को प्राप्त होता है, अर्थात् जिसके चित्त में प्रशरण-भावना उत्पन्न हो जाती है वह अशरण-भावना ही कमों को क्षय करके मुक्ति का कारण है। संसार का शरण तो क्या जैनधर्म कहता है कि भगवान का भी शरण बन्ध (शुभबंध) का कारण है। बन्ध शुभ हो या अशुभ, दोनों ही हेय हैं, त्याज्य हैं, उपेक्षणीय हैं ।
१३-उवएस शुद्ध सार-सार संसार सरनि मुक्तस्य । समस्त उपदेश का सार यही है कि हे भन्यो ! संसार के शरण से मुक्त होमो-छूटो, इसी में भात्म-कल्याण है।