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* तारण-वाणी
जबकि श्रावक कुल पाया है और जिसमें सच्चे देव अरहनदेव व निपंथगुरु तथा अहिंसा धर्म का संयोग मिला है। मनुष्य जन्म भी मिलता और यदि यह संयोग न मिलता तो न जाने कैसी कैसी हिंसा में तो धर्म मानते, कैसे २ पाखंडी गुरुओं की सेवा करते और कैसे २ मिथ्यात्वी देवों की पूजा करके अनंत खोटे कर्मों को बांध कर फिर से उसही चौरासी के चक्कर में पड़ जाते कि जहां से नीठ-नीठ कर न जाने किस पुण्योदय से यहाँ आकर यह श्रावक कुल पाया है। यदि अब भी तुम्हें सम्यक्त व मिथ्यात्व की पहिचान न हुई तो कब होगी ? ऐसा जान कर शास्त्रध्ययन करो और सात तत्वों के यथार्थ स्वरूप को समझकर उन पर श्रद्धान करो व सम्यक्ती बनो। हम गृहस्थ हैं, हम अभी व्यवहारी हैं, इन कायरता की बातों को छोड़ो और आत्म-बल से काम लो तभी संसार के दुःखों से छूटोगे यदि अनादिकाल जैसी भूल फिर भी करते रहे तो पछिताभोगे।"
पुण्य की आकांक्षा छोड़कर सम्यक्ती बनो । "काष्ठ, पाषाण दिस्ट च, लेपन चित्र अनुरागत:
पाप कर्म च वर्धन्ति, त्रिभंगी असुहं दलं ॥" (त्रिभंगीसार) इस पर विचार-जैनधर्म वीतराग धर्म है, जो कहता है कि अशुभ राग और शुभ इन दोनों को छोड़कर वीतराग धर्म का सेवन करने पर ही आत्मा शुभाशुभ कर्मों से छूटेगी । अशुभ की बात तो दूर रही, हे भव्य ! जब तक तुम शुभ राग करते हुए पुण्य बंध भी करते रहोगे तब तक संसार से पार न होगे, इस विचार से शुभराग द्वारा प्रात्मा में शुभकर्मों का बंध करना भी सोने की बेड़ी याने बंधन है, पाप है। जैसा कि योगीन्द्रदेव कहते हैं कि
पापहि पापड पुन्य को, पुन्य कहत सब लोई।
कहे पुन्य को पाप जो, विरला पंडित कोइ ॥ इसी दृष्टि से श्री तारण स्वामी ने इस उपरोक्त गाथा में कहा है कि-काष्ठ, पाषाण की मूर्ति व चित्रों को अनुराग पूर्वक देखने से कर्मों का आश्रव ही होता है चाहे वह शुभाश्रव हो या प्रशुभाश्रव हो, मानव ही पाप-बंध है।
हम कहते हैं कि महन्त की प्रतिमा के दर्शन-पूजन से पुण्यबंध होता है थोड़ी देर के लिये ऐसा ही मान लें तो भी जैन सिद्धांत के अनुसार ज्ञानी पुरुष ने तो उसे भी पाप हो माना; क्योंकि छूटना है कर्मों से और दर्शन करके बांधे कर्म, तब कहाँ वीतराग धर्म की साधना की ? उससे विपरीत ही तो किया और विपरात को हो मिथ्यात्व कहते हैं। कोई शका करे कि शास्त्र दर्शनपूजन की भी यहो बात होगी ? नहीं; शास्त्र का प्रयोजन दर्शन-पूजन से नहीं, शारू सो अध्ययनं. स्वाध्याय की चीज है यदि कोई स्वाध्याय नहीं करे, नहीं सुने, नहीं मनन करे, नहीं उसके