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* तारण-वाणी *
ज्ञान की दृष्टि से सातावेदनी मीठा विष है और अमाता वेदनी कडुआ विष है। श्रात्मस्वभाव के arre दोनों ही हैं। इस तत्र का विचार करने पर धर्म का स्वरूप समझा जा सकता है, अन्यथा साता - असाता के चक्कर में अनादिकाल से पड़ा है और पड़ा ही रहेगा ।
जैसे कोई अनार्य - म्लेच्छ को म्लेच्छ-भाषा के बिना अर्थ ग्रहण कराने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है, इसलिये व्यवहार का उपदेश है 1 और इसी सूत्र की व्याख्या में यह कहा है कि इस प्रकार निश्चय को अंगीकार कराने के लिये व्यवहार से उपदेश देते हैं, किन्तु व्यवहारनय अंगीकार करने योग्य नहीं है। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक )
मुमुक्षुओं का कर्तव्य
आजकल इस पचमकाल में इस कथन को समझने वाले सम्यग्ज्ञानी गुरु का निमित्त सुलभ नहीं हैं. किन्तु जहाँ वे मिल सकें वहाँ उनके निकट से मुमुक्षुओं को यह स्वरूप समझना चाहिये और जहाँ वे न मिल सकें वहाँ शास्त्रों के समझने का निरन्तर उद्यम करके इसे समझना चाहिये । इसके ( शास्त्रों अथवा गुरुओं के ) आश्रय से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसलिये इसे यथार्थ समझना चाहिये, सत् शास्त्रों का श्रवण पठन, चितवन करना, भावना करना, धारण करना, हेतु युक्ति के द्वारा नयविवक्षा को समझना, उपादान निमित्त का स्वरूप समझना और वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का निश्चय करना चाहिये । यह सब कुछ करने का मूल साधन एक शास्त्रों का स्वाध्याय करना ही है और वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का मुख्य कारण है, इसलिये मुमुक्षु जीवों को उसका अर्थात् शास्त्रों के स्वाध्याय का निरन्तर उपाय करना चाहिये ।
रूप
इसी दृष्टि से श्री तारण स्वामी ने 'श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी' प्रन्थ को सत् शास्त्र के में रचना करके व्यवहार तथा निश्चय का यथार्थ स्वरूप कथन करके यह उपदेश दिया है कि जिस व्यवहार में निश्चय का लक्ष हो वही व्यवहार कारणरूप और यथार्थ है, कार्यकारी है; और जिस व्यवहार में निश्चय का लक्षविन्दु नहीं है वह सबही व्यवहार मिध्याव्यवहार है, कार्यकारी नहीं है, मात्र आडम्बर रूप है, अतः मुमुक्षु जीवों को व्यवहार तथा निश्चय का यथार्थ स्वरूप वर्णन करने वाले सत् शास्त्रों का स्वाध्याय-मनन- चितवन निरन्तर करना चाहिये, यही मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है, सम्यग्दर्शन प्राप्ति का मुख्य उपाय है, बलवान साधन है।
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देव, गुरु, शास्त्र के अवलंबन के बिना गुण ( सम्यक्दर्शन ) कैसे हो सकता है ? जिसे ऐसी शंका होती है वह अपने भ्रम के द्वारा अपने स्वतन्त्र गुण ( सम्यक्दर्शन ) का नाश करता है ।