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* तारण-वाणी *
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निर्विकल्प स्वभाव के अवलम्बन से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। यह सम्यग्दर्शन ही आत्मा
है
के सर्व सुख का मूल
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एक बार निर्विकल्प होकर अखण्ड ज्ञायक स्वभाव को लक्ष में लिया कि वहां सम्यक् प्रतीति हो जाती है । श्रखण्ड स्वभाव का लक्ष्य ही स्वरूप की शुद्धि के लिये कार्यकारी है 1
विकल्परहित होकर अभेद का अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। अर्थात् निर्विकल्प होकर आत्मानन्द में मगनता होना, तन्मय होना सोई सम्यग्दर्शन का स्वरूप है ।
अखण्डानन्द श्रभेद आत्मा का लक्ष्य नय पक्ष के द्वारा नहीं होता । नयपक्ष की विकल्प रूपी विचारधारा चाहे जितनी दौड़ाई जाय, मैं ज्ञायक हूँ, शुद्ध हूँ, अभेदरूप हूँ, ऐसे विकल्प करें फिर भी वे विकल्प आत्म-स्वरूप के आंगन तक ही ले जायेंगे, किन्तु स्वरूपानुभव के समय तो वे Rafaeप छोड़ ही देने पड़ेंगे। विकल्प को साथ लेकर ( रखते हुये ) स्वरूपानुभव नहीं हो सकता ।
जब स्वसन्मुख अनुभव द्वारा अभेद का लक्ष्य करता है तब भेद का लक्ष्य छूट जाता है, प्रत्यक्ष स्वरूपानुभव होने से अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है ।
सम्यग्दर्शन ही शान्ति का उपाय है
अनादिकाल से आत्मा के अखण्ड रस को सम्यग्दर्शन के द्वारा नहीं जाना है इसलिये जीव पर मैं और विकल्प में रस मान रहा है । किन्तु मैं अखण्ड एकरूप स्वभाव हूँ उसी में मेरा रस हैं, पर में कहीं मेरा रस नहीं - इस प्रकार स्वभाव दृष्टि के बल से एक बार सबको नीरस बना दे | तुझे सहजानन्द स्वरूप के अमृत रस की अपूर्व शान्ति का अनुभव प्रगट होगा । उसका उपाय सम्यग्दर्शनही है।
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संसार का अभाव सम्यग्दर्शन से ही होता है
अनन्तकाल से अनन्त जीव संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं और अनन्तकाल में अनन्तजीव सम्यग्दर्शन के द्वारा पूर्ण स्वरूप की प्रतीति करके मोक्ष को प्राप्त हुये हैं। जीवों ने संसार पक्ष तो अनादिकाल से ग्रहण किया है किन्तु सिद्धों का ( मोक्ष का ) पक्ष कभी ग्रहण नहीं किया । श्रव सिद्धों का पक्ष ग्रहण करके अपने सिद्धस्वरूप को जानकर संसार का अभाव करने का अवसर आया है, और उसका उपाय एक मात्र सम्यग्दर्शन ही है ।
१ - निजपद की प्राप्ति होती है। २- भ्रांति का नाश होता है । ३ - आत्मा का लाभ होता है । ४ - भाव कर्म बलवान नहीं होता । ५- अनात्मा का परिहार सिद्ध होता है । ६ - राग द्वेष मोह उत्पन्न नहीं होते । ७ - पुनः कर्म का श्राश्रव नहीं होता । ८- पुनः कर्म नहीं बंबता । ६-३ - पूर्ववद्ध कर्म भोगा जाने पर निजेरित हो जाता है । १० – मोक्ष होता है। आत्मावलम्बन की ऐसी ही महिमा है ।