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* तारण-वाणी
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तरह से प्रात्मभाव रूप चारित्र की सदोषता या निर्दोषता की अपेक्षा से भेद है। सम्यग्दर्शन स्वयं संवर है और यह तो शुद्ध भाव हो है, इसलिये यह भास्रव या बंध का कारण नहीं है ।
संबर के कारण-"स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्र" ॥
अर्थ-तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा और पांच चारित्र ( सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात ) तथा बावीस परीषहजय, इन छह कारणों से संबर होता है।
जिस जीव के सम्यग्दर्शन होता है उसके संवर के ये छह कारण होते हैं मियादृष्टि के इन छह कारणों में से एक भी यथार्थ नहीं होता । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के तथा माधु के ये छहों कारण यथासम्भव होते हैं। संवर के इन छह कारणों का यथार्थ स्वरूप समझे बिना संवर का म्वरूप समझने में भी जीव की भूल हुये बिना नहीं रहता । इसलिये इन छह कारणों का ,यथार्थ म्वरूप ( मोक्षशास्त्र कानजी स्वामी द्वारा ) समझना चाहिये । ( पृ० ६७८ )
___ गुप्ति-वीतराग भाव होने पर जीव जितने अश में मन, वचन, काय की तरफ नहीं लगता उतने अश में निश्चय गुप्ति है और यही संवर की कारण है। जो जीव नयों के राग को छोड़कर निज स्वरूप में गुप्त होता है उस जीव के गुप्ति होती है। उसका चिन विकल्प-जाल से रहिन शांत होता है और वे साक्षात् अमृत रस का पान करते हैं। यह स्वरूप-गुप्ति की शुद्ध क्रिया है। जितने अंश में वीतराग दशा होकर स्वरूप में प्रवृत्ति होती है उतने अश में गुप्ति है । इस दशा में लोभ मिटता है और अतीन्द्रिय सुख अनुभव में पाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यरज्ञान पूर्वक लौकिक बांछा रहित होकर त्रियोगों का यथार्थ निग्रह करना सो गुप्ति है। योगों के निमित्त से आने वाले कमों का रुक जाना सो संवर है। गुप्ति का प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से ही हो सकता है यदि जीव पुरुषार्थ करे तो। वास्तव में आत्मा का स्वरूप ( निज रूप ) ही परम गुप्ति है, इसीलिये आत्मा जितने अश में अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिर रहे उतने अंश में गुप्ति है । कुछ लोग मन, वचन, काय की चेष्टा दूर करने, पाप का चितवन न करने, मौन धारण करने तथा गमनादि न करने को गुप्नि मानते हैं, किन्तु यह व्यवहार गुप्ति भले ही मान ली जाय, वास्तविक गुप्ति नहीं है, क्योंकि जीव के मन में भक्ति आदि प्रशस्त रागादिक के अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं और वचन, काय की चेष्टा रोकने का जो भाव है सो तो शुभ प्रवृत्ति है, प्रवृत्ति में गुप्तित्व नहीं बनता।
"तपसा निर्जरा च ॥" अर्थ-तप से निर्जरा होती है और संपर भी होता है। किन्तु सम्यक तप ही निर्जरा, संबर का कारण है। सम्यग्दृष्टि जीव के ही सम्यक् तप होता है। मिध्यादृष्टि जीव के तप को बाल तप कहते हैं और यह प्रास्रव है। जो सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञान से रहित हैं