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________________ * तारण-वाणी [ १६१ पुरुषार्थ से की हुई निर्जग-अविपाक है। इसी को सकाम निर्जरा भी कहते हैं तथा पाप कमों की निर्जरा तप के द्वारा करना और देवायु के पुण्य कमों का बंध करना मो अकाम निर्जरा है। ___ शुभ या अशुभ दोनों बंध भाव हैं। इन दोनों से घाति कर्मों का बंध निरन्तर होता है। सभी घाति कर्म पाप रूप ही है और वही आत्मगुण के घात में निमित्त है, तब फिर शुभ बंध अच्छा क्योंकर हो सकता है ? मिथ्यादर्शन की कुछ मान्यतायें१-स्वपर एकत्व दर्शन, २-पर की कर्तृत्व बुद्धि, ३-पर्याय बुद्धि, ४-व्यवहार विमूढ़, ५-अतत्व श्रद्धान, ६-स्व स्वरूप को भ्रान्ति, ७-राग से-शुभ भाव से प्रात्मलाभ हो ऐमी बुद्धि, ८-बाहिर दृष्टि, -विपरीत मचि, १०-जैसा वस्तुस्वरूप हो वैसा न मानना और जैसा न हो वैसा मानना, ११- अविद्या, १२-पर से लाभ हानि होती है ऐसी मान्यता, १३-अनादि अनन्त चैतन्य मात्र चिरकाली आत्मा को न मानना किन्तु विकार जिननो ही आत्मा मानना, १४-विपरीत अभिप्राय, १५-पर समय, १६-पर्याय मूढ़, १७-ऐसी मान्यता कि जीव शरीर की क्रिया कर सकता है, १८-जीव को पर द्रव्यों की व्यवस्था करने वाला तथा उसका करो, भोक्ता, दाता, हना मानना, १६-जीव को हो न मानना, २०-निमित्ताधीन दृष्टि, २१-ऐसी मान्यता कि पराश्रय से लाभ होता है, २२-शरीराश्रित क्रिया से लाभ होता है ऐसी मान्यता, २३-सवज्ञ की वाणी में जैसा आत्मा का पूर्ण स्वरूप कहा है वैसे स्वरूप की अश्रद्धा, २४-दाम्तव में व्यवहार नय के आदरणीय होने की मान्यता, २५-शुभाशुभ भाव का स्वामित्व, २६-शुभ विकल्प से आत्मा को लाभ होता है ऐसी मान्यता, २७-ऐसी मान्यता कि व्यवहार रत्नत्रय करत करत निश्चय रत्नत्रय प्रगट होता है, २-शुभ अशुभ में सदृशना न मानना अर्थात् एमा मान्यता कि शुभ अच्छा है और अशुभ खराब है, २६--ममत्व बुद्धि से मनुष्य और तिर्यंच के प्रति करुणा होना । (मो० शा० पृ० ६३०) अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के यथार्थ संवर और निजस तत्व की प्रगट नहीं हुए, इसीलिये उसके यह संसार रूप विकारी भाव बना रहा । और प्रति समय अनन्त दुःख पाता है । इसका मूल कारण मिथ्यात्व ही है। ___धर्म का प्रारम्भ संवर से होता है और सम्यग्दर्शन ही प्रथम संवर है, इसीलिये धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ही है । संवर का अर्थ जीव के विकारी भात्र को रोकना है । सम्यक्दर्शन प्रगट
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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