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* तारण-वाणी
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येन रागे परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् ।
तेनापि योगी नित्यं कुर्शदात्मनि स्वभावनाम् ॥७१॥ अर्थ-जा कारण करि परद्रव्य विर्षे राग है सो संसार ही का कारण है, तिस कारण ही करि योगीश्वर मुनि हैं ते नित्य पात्मा ही विर्षे भावना करें हैं।
भगवान की मूर्ति की बात तो दूर रहो, साक्षात् भगवान भी तो परद्रब्य हैं। हमारी जो श्रात्मा वही हमारे लिये स्वद्रव्य है और उनकी प्रात्मा उनके लिये स्वद्रव्य थी। अत: वे भी सिद्धों का नहीं अपनी ही आत्मा का ध्यान करते थे और वही उपदेश दूसरों को दिया था। ऐसा नहीं कहा था कि भो श्रावको ! तुम हमारी मूर्ति बनाकर उसमें हमें श्राह्वान करना सो हम उसमें आ जाया करेंगे और हमारी पूजा से तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति अथवा पुण्य का लाभ हो जायगा ।
भगवान तो बहुत बड़ी चीज हैं, गाँधी जी ने भी दि० ८-४-४६ के साप्ताहिक अर्जुन में लिखा था कि- यदि हमारे पीछे हमारी मूर्ति बनाकर उसकी मान्यता की गई तो काश ! हमारी
आत्मा स्वर्ग में भी होगी तो वहाँ पर भी रुदन करेगी। क्योंकि मूति की मान्यता होने पर सिद्धांतमान्यता शिथिल होने लग जाती है और थोड़े काल पीछे उसका तो प्रभाव हो जाता है, केवल मूर्ति- मान्यता ही अपनी प्रधानता ले लेती है।
बिलकुल यही दशा हम जैनियों की हुई, जो हमारे आप सबके सामने स्पष्ट है कि हमारा सिद्धांत हममें नहीं, केवल सिद्धांत ग्रन्थों में रह गया, हमारे धर्म की इतिश्री तो केवल मूर्ति में ही
हो गई।
-सम्पादक।
निन्दायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च ।
शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः ॥७२॥ अर्थ--निन्दा-प्रशंसा विर्षे, दुख-सुख विर्षे, शत्रु, बन्धु और मित्र विौं समभाव जो समता परिणाम, रागद्वेष से रहितपणा ऐसे भावतें चारित्र होय है ।
अद्यापि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभते इन्द्रत्वम् ।
लौकान्तिकदेवत्वं ततः च्युत्वा निर्वाणं याति ॥७७॥ अर्थ-श्रवार इस पंचमकाल में भी जे जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र शुद्ध करि संयुक्त होय हैं ते प्रात्मा • ध्याय करि इंद्रपणा पावे हैं तथा लौकान्तिकदेवपना पावे हैं, बहुरि तहां से चयकर निर्वाण कू प्राप्त होय हैं।