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* तारण-वाणी *
कूल हैं । के फूल हैं ।।२४३||
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जिसके हृदय सम्यक्त्वरूपी, सलिल जाके अर्पित न करते वे अदेवों को, हृदय जो मन्दिरों की मूर्तियों को मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असभ्य, अशुभ कर्म महान् हैं | पाषाण को, जड़ को अरे, जो देव कहकर मानते I वे र अनन्तानन्त युग तक धूल जग की छानते ||३१०|| मिध्यात्व मायाचारिता के, जो अगाध निधान है । ही अचेत देव को कहते अरे भगवान हैं ॥ इन पत्थरों के देवताओं के' जो बिते जाल हैं । फँसती है मिध्यादृष्टि जीवों की मिथ्यादेवों को यह मानव नित्य देवों के ढिंग जाकर मिया माया में फँसकर यह बनता और इसी से भव-भव फिर यह बनता
अपने देव बनाता |
उनको
शीश झुकाता ॥
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श्रवृत पुजारी ।
उनमें माल हैं ||३११॥
अवृत पुजारी ॥
दुर्गतिधारी ॥१६॥
लोकमूढ़ता का बन जाता है जो जीव पुजारी | देवमूढ़ता भी आ करती, उसके सिर असवारी ॥ शेष नहीं पाखण्डमूढ़ता, भी फिर रह पाती है । और कि यह राशि उसे फिर दुर्गति दिखलाती है ||२८|| पंडित पूजा (तारण त्रिवेणी प्रथमधारा )
देव, किन्तु देवत्वहीन जो, वे 'देव' कहलाते है । वही 'गुरु' जड़ जो गुरु बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं । ऐसे इन 'देव' अगुरों की पूजा है मिध्यात्व महान । जो इनकी पूजा करते वे, भव-भव में फिरते अज्ञान ||२४||
ओम् का स्वरूप और उसकी महिमा :
ओम् रहा है और रहेगा, सतत उच्च सद्भावागार । परमब्रह्म, आनन्द ओम् है, श्रोम् अमूर्त शून्य - श्राकार ॥