________________
११६]
* तारण-वाणी *
श्री तारणतरणाचार्यकृत उपदेशशुद्धमार:
मोहंधं च सुभावं, कुदेवं देव सयल सहकारं । अदेवं अनुमोयं, दर्शनमोहंध निगोय वासम्मि ॥१८१॥ दर्शन्ति अशुद्ध दर्श, रूप सहावेन सरनि संसारे ।
अनुत अचेत सहावं, दर्शन मोहंध दुग्गये पत्तं ॥२०१।। श्री तारणस्वामीकृत त्रिभंगीसार:
काष्ठ पाषाण दिष्टं च, लेपं चित्र अनुरागतः ।
पापकर्म च वर्द्धन्ति, त्रिभंगी असुहं दलं ॥३६॥ श्री पंडितपूजा जी तारण स्वामीकृत
अदेवं अन्यान मुदं च, अगुरु अपूज्य पूजितं । मिथ्यात्वं सकल जानन्ति, पूजा संसार-भाजनं ॥२४॥ असत्यं अनृत न दिष्टंते, अचेतदृष्टि न हीयते ।
दिष्टतं शुद्ध समयं च, समिक्तं शुद्धं ध्रुवं ॥१७॥ इस तरह श्री तारण स्वामी ने एक नहीं उपरोक्त पांच ग्रन्थों में २५ गाथायें जो देवत्व से हीन प्रदेवों की ( मूर्ति की ) अर्चना-पूजा, भक्ति, आराधना करने में जो आत्मा की हानि अर्थात संसार-भ्रमण की कारण है, कहीं है।
ऐसी बात न जानना कि किसी देश-काल की परिस्थिति के कारण से उन्होंने मूर्तिपूजन नहीं बताया प्रत्युत सिद्धान्तत: अथात जैनधर्मानुसार मूर्ति अमान्य सर्वथा अमान्य है, जिसके अनेक प्रमाण जैनशास्त्रों में पाये जाते हैं, उन्हें सुनिये और स्वयं अनुभवपूर्वक विचार कीजिए। श्री योगीन्द्रदेवाचार्य कृत योगसार जिसका पद्यानुवाद श्री नाथूगम जी लभेचू ने किया है
तीर्थ दिवालय देव न, देह दिवालय देव ।। जिनवाणी गुरु यों कहें, निश्चय जानों एव ॥४१॥ तन मन्दिर में जीव जिन, मन्दिर मूर्ति न देव । सिद्ध बने भिक्षहि भ्रमे, सन्मुग्य हांसी एव ॥४२॥ मूढ ! दिवालय देव न, मूर्ति चित्र न देव । तन मन्दिर में देव जिय, ज्ञानी जानें भेव ॥४३।।