________________
१८
तारण-वाणीः
अन्यानं नहि दिट्ट', न्यान सहावेन अन्मोय ममलं च । न्यानंतरं न दिटुं, पर पर्जाव दिट्ठि अंतरं सहसा ॥१८॥
क्षायिक सम्यग्दृष्टी में, अज्ञान नहीं रहता है । ज्ञान-तरंगों पर चढ़, नित वह, शिव-सुख में बहता है ॥ आत्म-ज्ञान में अंतर उसके, नेक नहीं दिखलाता । भेद-भाव, पर परिणतियों में, पर सहसा ओ जाता ॥
प्रात्ममनन करने वाले विज्ञानी के अंतरंग में अज्ञान का वास दढे से भी नहीं मिलता है आर वह नित्य प्रति ज्ञान की तरंगों पर ही हिलोरें लिया करता है। समय के प्रभाव से यह नहीं होता कि कभी उसके आत्म-ज्ञान में अन्तर पड़ जाये या न्यूनता पा जाये। हां, यह अवश्य हो जाता है कि नो परिणितियें कल उसमें अन्तरंग में विद्यमान थी, वे आज वहाँ दिखाई भी न दें और उनकी जगह शुद्ध भावनाओं की नई तरंग ले ले। पर परिणतियों से तो उसे भेदभाव और विशेष भेदभाव उत्पन्न हो जाता है, उन्हें तो वह अपने में फटकने भी नहीं देता-स्पर्श भी नहीं करने देता।
अप्पा अप्प सहावं, अप्पसुद्धप्प ममल परमप्पो । परम सरूवं रूर्व, रूवं विगतं च ममल न्यानं च ॥१९॥
आत्म द्रव्य ही है परमोत्तम, शुद्ध स्वरूप हमारा । वह ही है शुद्धात्म यही है, परमब्रह्म प्रभु प्यारा ॥ त्रिभुवन में चेतन-सा उत्तम, रूप न और कहीं है । है यह ज्ञानाकार, अन्यतम इसका रूप नहीं है ॥
हमारे शुद्ध स्वरूप की यदि कहीं कोई छवि है तो वह हमारी आत्मा में विद्यमान है। हमारी वह आत्मा इसी लिये हमें शुद्धात्मा है और इसी लिये परमात्मा। तीनों लोक में इस आत्मा सा ज्ञानाकार उत्तम पदार्थ न कहीं है और न कभी होगा ही।