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पारण-नाणी
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जिन पंच परम जिनयं न्यानं पंचामि अक्षर जोर्य । न्यानेय न्यान विधं, ममल सुभावेन सिद्धि सम्पत्तं ॥१२॥ आत्म तत्व ही सम्यक्त्वी का, परमेष्ठी पद प्यारा । आत्म तत्व ही उसका, केवलज्ञान अलौकिक न्यारा ॥ आत्म तत्व के अनुभव से ही, आत्मज्ञान बढ़ता है । आत्मज्ञान के बल पर ही नर, शिवपथ पर चढ़ता है ।
सम्यग्दृष्टी पुरुष के लिये आत्मतत्त्व ही पमेष्ठी का पद है और वही उसे सिद्ध है, सिद्ध प्रभु व अरहंत प्रभु का केवलज्ञान है । इस श्रात्म-तत्त्व का अनुभव आत्मज्ञान के बढ़ाने में अत्यन्त ही सहकारी होता है और यही आत्मज्ञान हो वास्तव में वह नौका या जहाज है जिस पर बैठकर यह मानव संसार सागर से पार हो जाता है।
चिदानन्द चितवन, चेयन आनन्द सहाव आनन्दं । कम्ममल पयडि विपनं, ममल सहावेन अन्मोय संजुत्तं ॥१३॥ सत्-चित्-आनन्द चेतन में तुम, रमण करो प्रिय भाई ! इससे तुमको होगा अनुभव, एक अकथ सुखदाई ॥ मुरझा जाती है पापों की, आत्म मनन से माला ।
कर्म प्रकृतियों की हो जाती, हिम-सी ठण्डी ज्वाला ॥ हे भाइयो ! तुम सत चित आनन्द के घर इस आत्मा में रमण करो; इससे तुम्हें एक अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति प्राप्त होगी। आत्ममनन से पापों की माला मुरझा जाती है, और कर्म प्रकृतियों की ज्वाला इससे हिम के समान ठंडी-शीतल हो जाती है।