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तारण-वाणी
ज्ञानं गुणं माल सुनिर्मलत्वं, संक्षेप गुथितं तुव गुण अनन्तं । रत्नत्रयालंकृत सस्स्वरूपं, तत्वार्थ साधं कथितं जिनेद्रैः ॥१८॥
शुद्धात्मा की गुणमालिका में, वाणी अगोचर है पुष्प भाई । संक्षेप में ही, पर पुष्प चुन चुन, यह दिव्य माला मैंने बनाई ।। आगम, पुराणों से तुम सुनोगे, बस एक ही वाक्य परमात्मा का।
रत्नत्रयाच्छन्न है भव्य जीवो, शशि सा सुलक्षण परमात्मा का ॥ वैसे तो अध्यात्म गुणों की इस मालिका में अर्थात् शुद्धात्मा में अनेकों सुरभियुक्त प्रसून गूथे हुए हैं, किन्तु उसमें से कुछ ही प्रसूनों ( फूलों ) को उठाकर उनके गुणों की चर्चा मैंने तुमसे की है।
आगम पुराण और संसार के सारे ज्ञान व विज्ञानों से तुम्हें एक ही कथन सुनने को मिलेगा और वह यह कि शुद्धात्मा या अध्यात्म मालिका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की निधान है, उस निधान की-तत्त्वार्थ की तुम श्रद्धा करो, एकमात्र यही जिनेन्द्रदेव का कथन है ।
श्रेनीय पृच्छति श्री वीरनाथ, मालाश्रियं मागंत नेहचकं । धरणेन्द्र, इन्द्र गन्धर्व जसं, नरनोह चक्र विद्या धरेत्वं ॥१९॥
श्री वीर प्रभु से श्रेणिक नृपति ने, पूछा सभा में मस्तक नवाकर । इस मालिका को त्रिभुवन तली पर, किसने विलोका कहो तो गुणागर ? क्या इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व ने भी, देखी कमी नाथ यह दिव्यमाला ?
या यक्ष, चक्रेश, विद्याधरों ने, पाया कभी नाथ यह मुक्ति-प्याला ? भगवान महावीर से श्रेणिक नृपति ने उनके समोशरण में एक प्रश्न पूछा-भगवन् ! त्रिभुवन में इस अध्यात्म माला के दर्शन पाने में कौन समर्थ हुआ ? इस अलौकिक गुणों को लक्ष्मी ने किसके गले में जयमाला डाली ! __क्या इन्द्र, धरमेन्द्र, गन्धर्व सरीखी विभूतियों ने कभी इस माला को देखा या कभी यक्ष, चक्रश या विद्याधरों ने इस माला को आरोहण किया ? हे सम्यक्त्वधाम ! यह आप बतावें।