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तारण-वाणोः
साधं च सप्ततत्वानं, दर्वकाया पदार्थकं । चेतनाशुद्ध ध्रुवं निश्चय, उक्तं च केवलं जिनं ॥३०॥
सप्त तत्व को देखो चाहे, छह द्रव्यों का छानों कुज । नौ पदार्थ, पचास्तिकाय का, चाहे सतत बिखेरो पुंज ॥ इन सब में पर जीव-तत्व ही, सार पाओगे विज्ञानी ।
आत्मतत्व ही सारभूत है, कहती यह ही जिनवाणी ॥ चाहे तुम सात तत्तों के पुत्र को देखा, और चाहे छह द्रव्यों की राशि को विखोरो अथवा पंचाम्तिकाय और नौ पदार्थों को। इन सबमें तुम्हें सारभूत पदाथ कंवल एक प्रात्मा ही मिलेगा। श्री जिनवाणी का भी यही कथन है कि हे भव्यो ! जो चेतना लक्षण से मंडित ध्रुव और शाश्वन आत्मा है, वास्तव में वही इस जगत में केवल एक मारभूत है, नीर्थस्वरूप कल्याणदायिनी है।
मिथ्या तिक्त त्रतियं च, कुज्ञान प्रति तिक्तयं । शुद्धभाव शुद्ध समयं च, माधं भव्य लोकयः ॥३१॥
दर्शन मोह तीन हैं भव्यो, छोड़ो उनसे अपना नेह । कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, कुज्ञानों, से भी हीन करो हिय-गेह ॥ निर्मल भावों से तुम निशिदिन, धरो आत्म का निश्चल ध्यान ।
आत्म-ध्यान ही भव-सागर के, तरने को है पोत महान ॥ तीन प्रकार के मिथ्यात्वों को छोड़कर जो तीन प्रकार के कुज्ञान हैं, हे भव्यो ! तुम उनसे भी अपना नाता तोड़ दो। तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम निर्मल भावों से केवल अपनी शुद्धात्मा का हो ध्यान करो। क्योंकि तुम्हारी आत्म-नौका ही तुम्हें पार लगायेगी, किसी दूसरे चेतन व अचेतन पदार्थ में यह शक्ति नहीं जो तुम्हें संसार समुद्र से पार कर दे।