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जैनधर्म की कहानियाँ
जम्बूकुमार का साहस एक दिन महाराजा श्रेणिक सभा के मध्य सिंहासन पर सूर्यसमान शोभायमान हो रहे थे। उनके समीप अनेक राजा बैठे हुए थे। अनेक सेवक महाराजा के मस्तक पर शीतल जल के समान शीतल पवन देनेवाले चंवर ढोर रहे थे। महामंत्री, सेनापति आदि यथायोग्य स्थान पर बैठे हुए थे। समीप में ही धीर-वीर जम्बूकुमार भी विराजमान थे। उनका शारीरिक तेज सोलह कलाओं से खिले हुए चन्द्रमा के समान तेज बिखेर रहा था, जिसके सामने राजा का शारीरिक तेज भी तेजहीन दिख रहा था। इतने में अकस्मात ही आकाशमार्ग से सभी दिशाओं में प्रकाश करता हुआ, घंटियों की मधुर-ध्वनि युक्त विमान पर आरूढ़ हो एक विद्याधर का आगमन हुआ।
विद्याधर विमान से नीचे उतर कर राजा को नमस्कार करते हुए अपने आने का कारण बतलाते हुए बोला -
"हे राजन् ! सहस्र-श्रृंग नाम का एक उत्तम पर्वत है। वहाँ विद्याधरों का वास है। उसी पर्वत पर मैं भी दीर्घकाल से सुखपूर्वक रहता हूँ। मेरा नाम व्योमगति है। हे राजन्! मैं एक आश्चर्यकारी बात कहने आया हूँ। मलयाचल पर्वत के दक्षिण भाग में एक केरल नाम का नगर है। उसका राजा मृगांक है, जो यशस्वी एवं गुणवान है। उसकी मालतीलता नाम की पत्नी है, वह मेरी बहन है। वह भी शीलवान, गुणवान एवं सुवर्ण समान शरीरधारी है। उसकी एक विशालवती नाम की कन्या है जो कि सुन्दरता की मूर्ति है।
उसके योग्य वर के संबंध में एक दिन राजा मृगांक ने असाधारण प्रज्ञा के धनी धीर-वीर गुणगंभीर पूज्य मुनिराज से विनयपूर्वक पूछा - 'हे गुरुवर! मेरी इस पुत्री का वर कौन होगा?' तब मुनिराज बोले . 'हे राजन्! राजगृही का राजा श्रेणिक ही तेरी पुत्री का वर होगा।'
लेकिन हे स्वामी! हंसद्वीप निवासी रत्नचूल नामक विद्याधर ने उस सुन्दर कन्या को अपने लिए वरने की इच्छा प्रगट की। राजा मृगांक ने उसकी बात स्वीकार नहीं की, इस कारण वह क्रोधित हो गया है। उसने अपनी सेना को सजाकर मृगांक राजा के नगर