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जैनधर्म की कहानियाँ
लगे - "अपने मित्र सेठ अर्हदास का पुत्र जम्बूकुमार धन-वैभव, रूप-लावण्य, कला, शास्त्र आदि सर्व गुणों से सम्पन्न है, परम धर्मात्मा मोक्षगामी जीव है, उसे अपनी कन्या दी जावे तो आपका क्या विचार है?"
सभी कन्याओं की माता यह शुभ विचार सुन मन में अति ही हर्षित होकर बोलीं - "हे स्वामी! आपकी कुशाग्र-बुद्धि को धन्य है, जो अपनी सुन्दर कन्या के लिए ऐसा उत्तम वर आपने चुना।"
चारों ही श्रेष्ठियों ने अपनी-अपनी धर्मपत्नी से विचार-विमर्श कर अपनी-अपनी कन्या को बुलाकर उनकी भावना जानने हेतु उनके सन्मुख अपना विचार रखा। चारों ही कन्याओं ने सलज्ज अपनी सहर्ष मौन स्वीकृति दे दी। इसके बाद चारों ही श्रेष्ठियों ने मिलकर विचार किया कि अपने मित्र श्रेष्ठी श्री अर्हद्दास के पास पहुँचे। अत: सेठजी के पास जाकर उनकी यथायोग्य विनय-सत्कार कर उनको बहुमूल्य भेंट प्रदान कर वे श्रेष्ठी-पुत्र श्री जम्बूकुमार के गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बोले - "हे मित्र! आपके सुविख्यात पुत्र जम्बूकुमार के साथ हम अपनी-अपनी कन्याओं का विवाह करने की प्रार्थना करने आये हैं। आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए। धर्मात्मा पुत्र को पाकर आप तो धन्य हुए ही हो, ऐसे पवित्र धर्मात्मा के समागम से हम एवं हमारी कन्यायें भी धर्म को धारण कर धन्य बनेंगी।"
अर्हदास श्रेष्ठी अपने मित्रों की बात सुनकर अति प्रसन्न हुए एवं अपनी पत्नी जिनमती से चारों श्रेष्ठिओं की भावना को व्यक्त करते हुए पूछने लगे - "हे प्रिये! आपकी क्या सम्मति है?"
जिनमती चारों श्रेष्ठीयों के कुल, जाति एवं व्यवहार-कुशलता से अच्छी तरह परिचित थी ही, इसलिए जिनमती ने भी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। पुत्र के विवाह के उत्सव की इच्छा माताओं को स्वभावत: होती ही है। फिर योग्य और सर्वांग सुन्दर कन्याओं के मिल जाने पर तो उनके हर्ष का पार ही नहीं रहता।