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जैनधर्म की कहानियाँ ही पूर्व जन्म के अभ्यास से स्मरण में आ गईं थीं, वह शिक्षा बिना ही सर्व कलाओं में पारंगत हो गया था तथा बृहस्पति के समान सर्व शास्त्रों का ज्ञाता हो गया था। वह चरमशरीरी तो था ही, जैसे-जैसे उसका शरीर वृद्धि को प्राप्त होता जाता था, वैसे-वैसे गुण भी वृद्धि को प्राप्त होते जाते थे। उसके शरीर में विशेष प्रकार का आरोग्य एवं सौन्दर्य था।
जम्बूकुमार शारीरिक बल एवं असाधारण प्रज्ञा के धनी तो बचपन से ही थे। महापुरुष स्वभाव से ही प्रत्येक क्रिया-कलाप में कुशल होते हैं। जम्बूकुमार में भी वे सभी लक्षण देखने को मिलते थे।
जम्बूकुमार छंद, अलंकार, चित्रकला, लेखनकला, नृत्य, गीत, वादित्र आदि कलाओं को स्वयं करते हैं और मित्रगणों से भी कराते हैं। कभी कवियों के साथ काव्यचर्चा तो कभी वादियों के साथ वाद किया करते हैं। कभी वीणा बजाते या बजवाते तो कभी कर-तल-ध्वनि से नृत्यकारों के उत्साह को वृद्धिंगत करते हैं। कभी गंधर्वो के द्वारा गाये हुए गंगा-जल के समान अपने निर्मल यश को सुनते हैं। कभी वापिकाओं में मित्रों के साथ जल-क्रीड़ा करते हैं, पिचकारी भर-भरकर दूसरों पर छिड़कते हैं या कभी नंदनवन-समान वनों में जाकर वन-क्रीड़ा करते हैं।
इस तरह क्रीड़ा करते-कराते कुमार आठ वर्ष के हो गये। अब वे कभी जिनमंदिर में भगवान की भाव-भक्ति-पूर्वक पूजा करते, कभी एकाकी ध्यानमुद्रा लगाकर बैठ जाते तो कभी मित्रों के साथ धार्मिक चर्चा भी करते हैं। सर्वगुणरूपी रत्नों की खान, पवित्र मूर्ति, देवतुल्य जम्बूकुमार अपने पुण्य-प्रताप से अपने घर में कुमारों के साथ मनवांछित क्रीड़ा करते हुए चन्द्रमा के समान शोभते हैं। उनके कंठ में हार तो ऐसा शोभता है, मानो लक्ष्मीदेवी के झूलने का हिंडोला हो तथा उसमें जड़े हुए मोती तारागण के समान चमक रहे हैं।
जिस धर्मवृक्ष की शीतल छाया में पुण्योदय से तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण आदि पद फलते हैं। उसी धर्मवृक्ष की शीतल छाया में यह अंतिम अनुबद्ध केवली के रूप में पुण्य फलित हुआ है। ऐसे धर्मवृक्ष की सेवा-उपासना सभी को करना चाहिए।