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श्री जम्बूस्वामी चरित्र चिह्न बन जाते हैं, इसलिए पर्वतों पर भगवान के चरण-चिह्न होते हैं। आप लोगों ने मंदारगिरि में भी देखे होंगे कि चरण-चिह्न में रेखाएँ बनी हुई हैं और नख नहीं होते, क्योंकि जमीन पर चरण रखने से नीचे के चिह्न पड़ते हैं, तो अंगुलियों में नीचे तो नख नहीं होते। इसलिए चरण-चिह्नों की यही पद्धति सम्यक् है।"
धारिणी रानी - "बहन संतों ने इतने ऊपर एवं एकांत में जहाँ जंगली पशु रहते हैं, वहाँ जाकर साधना क्यों की?"
जयभद्रा रानी - "बहनों! पर्वतों के नीचे की भमियों पर मनुष्यों आदि का निवास अधिक रहने से वातावरण भी अशांत एवं संसारवर्धक होता है। वहाँ आत्म-साधना निर्विघ्नरूप से नहीं हो पाती तथा असंयमी जनों का सहवास दोष-उत्पादक होता है; इसलिए संतों की साधना-भूमि पर्वत, गुफा, कोटर, गिरि-कंदरा आदि स्थान पर ही होती है, वे वहाँ एकाकी साधना करते हैं।"
यशोमती रानी - "बहन! हम सम्मेद शिखरजी की यात्रा को जा रहे हैं, इसके संबंध में मुझे एक शंका है कि शास्त्रों में १७० सम्मेद शिखर की चर्चा आती है। उसका क्या मतलब है?"
जयभद्रा रानी - "बहनों! वास्तव में पूरे मध्यलोक में एकसाथ १७० तीर्थंकर हो सकते हैं। अत: उनकी शाश्वत निर्वाण भूमियाँ सर्वत्र शाश्वत तीर्थधाम सम्मेद शिखर ही हैं। इसीप्रकार सभी १७० तीर्थंकरों की जन्म स्थली अयोध्या होने से अयोध्या की संख्या भी १७० है। इसका प्रमाण इसप्रकार है - मध्यलोक में अढाई द्वीप संबंधी ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ विदेह क्षेत्र हैं। जहाँ ५ भरत क्षेत्र के ५ तीर्थंकर, ५ ऐरावत क्षेत्र के ५ तीर्थकर तथा ५ विदेह क्षेत्रों में एक-एक में ३२-३२ तीर्थकर होते हैं। इसप्रकार ५ ५ + (५ x ३२) = १७० तीर्थंकरों की जन्म स्थली अयोध्या तथा निर्वानस्थली सम्मेद शिखर होने से उनकी संख्या भी १७०
__ पश्चात् सभी बहनें बोलीं - “दीदी! आज आपने बहुत-सी नई-नई बातें बताईं। अपना रास्ते का समय भी कितनी सुन्दर चर्चाओं में निकल गया और देखो! अब हम सभी इस अनंत महिमावंत