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जैनधर्म की कहानियाँ कराया, जिससे सेठजी स्वस्थ हो गये एवं मति भी ठीक हो जाने पर उन रानियों ने सेठजी के समक्ष अपनी तीर्थवंदना की भावना व्यक्त की, जिसे सुनकर सेठ ने उन्हें तीर्थवंदना की स्वीकृति देते हुए उनकी योग्य व्यवस्था भी कर दी। उनका पुण्य का उदय शीघ्र ही फलीभूत हुआ। वे चारों रानियाँ तीर्थधाम की यात्रा के लिये निकल गईं।
_वहाँ प्रथम ही चंपापुर में परमपूज्य श्री वासुपूज्य स्वामी का मंदिर था। वहाँ उन्होंने जिनदर्शन के लिए प्रवेश किया। अन्दर जाते ही वीतराग भाववाही जिनबिम्बों का दर्शन पा अपना जन्म सफल हुआ जान अपने को धन्य मानने लगी और जब वे चारों ओर अन्दर के जिनालयों की वंदना को गईं तो साक्षात् सिद्ध-सदृश पूज्य मुनिवर के भी दर्शन पा आनंदित हो गईं। उन्होंने मुनिराज के मुखारविंद से धर्मामृत का पान कर गृहस्थोचित श्रावक के व्रत अंगीकार कर, पुनः गुरुवर को नमस्कार करके मंदारगिरि के लिये प्रस्थान किया। अहो! आज अपना महाभाग्य जागा है, जो जिनदर्शन पा निजदर्शन करने की भवतापहारी यह दिव्य-देशना सुनने को मिली। मंदारागिरि के दर्शन करने के बाद जयभद्रा रानी बोली - “चलो बहनें! हम सभी शाश्वत तीर्थधाम सम्मेद शिखरजी की यात्रा को चलें।"
सभद्रा रानी - "बहन! इन तीर्थों की यात्रा क्यों की जाती है? जबकि कहीं-कहीं पर्वतों पर भगवान की प्रतिमायें भी नहीं होती, मात्र चरण ही रहते हैं।"
जयभद्रा रानी - "बहनों! इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना इसलिए करते हैं क्योंकि जहाँ से जो भव्य जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं, वे वहीं से सीधे ऊपर सिद्धालय में समश्रेणी में विराजमान होते हैं। दूसरी बात साधकों की साधना-भूमियों पर आने से जीवों को आत्म-साधना की प्रेरणा मिलती है। अत: कोई द्रव्य-भाव से मुनि-दीक्षा धारण कर, कोई आर्यिका-दीक्षा धारण कर, कोई उत्कृष्ट श्रावक-दशा को प्राप्त कर और कोई पवित्र सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर मुक्तिपथ में प्रयाण करते हैं।
तीर्थराजों की यात्रा में जीव वैर-विरोध भूल जाते हैं। साधु-संत एवं तीर्थंकर भगवान आदि के इन भूमियों पर चरण पड़ने से उनके