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जैनधर्म की कहानियाँ
से मल का ही सृजन कर मल का ही संचय किया है। यह देह मल से ही निर्मित है। उसके भोगों में सुख कहाँ से आयेगा ?
नव मल द्वार बहें घिनकारी, नाम लिये घिन आवें ।
यह शरीर तो अपवित्रता की मूर्ति है और भगवान आत्मा तो सदा पवित्रता की मूर्ति है। यह देह तो रोगों का भंडार है और भगवान आत्मा तो सदा ज्ञान- आनंद का निकेतन है। यह देह तो कागज की झोपड़ी के समान क्षण में उड़ जाने वाली है और भगवान आत्मा तो शाश्वत चेतन-बिम्ब है। इसलिए हे सज्जन ! तू चेत ! चेत !! और सावधान हो !!!
भोगे
हे जीव ! तूने अनेकों बार स्वर्ग-नरक के वासों को प्राप्त किया। और नरकों में दस हजार वर्ष से लेकर, कम्रश: तेतीस सागरोपम की स्थिति को प्राप्त करके अनेकों बार वहाँ जन्म-मरण किये। वहाँ भूमिकृत एवं अन्य नारकियों द्वारा दिये गये अगणित दुःख इसीतरह एकेन्द्रिय में एक स्वांस में अठारह बार जन्म-मरण के अपरंपार अकथित दुःख भोगे । अब तो इस भव- भ्रमण से विराम ले ! यह काया दुःख की ढेरी है। ये इन्द्रिय के कल्पनाजन्य सुख नरक- 5- निगोद के अनंत दुःखों के कारण हैं । हे बुध! तू ही विचार कि थोड़े दुःख के बदले में मिलनेवाला अनंत सुख श्रेष्ठ है या थोड़े से कल्पित सुखों के बदले में मिलने वाला अनंत दुःख श्रेष्ठ है ?
नाम सुख अनंत दुःख, प्रेम वहाँ विचित्रता । नाम दुःख अनंत सुख, वहाँ रही न मित्रता ॥
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हे वत्स ! ऐसा सुख सदा ही त्यागने योग्य है कि जिसके पीछे अनंत दुःख भरा हो । शाश्वत सुखमयी ज्ञायक ही तुम्हारा पद है 1 हे भाई! ये काम - भोग तो ऐसे हैं, जिनकी श्रेष्ठजन साधुजन स्वप्न में भी इच्छा नहीं करते। भोगीजन भी उन्हें भोगने पर स्वतः ही ग्लानि का अनुभव करते हैं। भोगने की बुद्धि भी स्वयं मोहांधरूप है । जिसे शुद्ध ज्ञानानंदमय आत्मा नहीं सुहाता, वह मग्नतापूर्वक भोगों
प्रवर्तता है, परन्तु हे भाई! वह तेरा पद नहीं है। वह तो अपद है, अपद है। इसलिए इस चैतन्यामृत का पान करने यहाँ आ ! यही तेरा पद है ! पद है !!