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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र इत्यादि अनेक प्रकार के विचारों से ग्रसित मन को उसने सत्यता की खोज के लिए बाध्य कर ही दिया। सत्य के उस खोजी को अनेक प्रकार की ऊहा-पोह के बाद सत्यता का रहस्य हाथ लग ही गया। वह सत्यता थी जिनशासन एवं वीतरागभाव की। जिनशासन की यथार्थता का रहस्य पाकर वह मन ही मन अति प्रसन्न हो मुनिराज के चरणारविन्दों में नतमस्तक हो समीप में ही बैठ गया। ज्ञानपयोनिधि मुनिराज श्री भावदेव ने उसके अन्तर की भावनाओं को, उसकी उदासीनता गर्भित प्रसन्नता को भाँप लिया। उसकी पात्रता मुनिराज के ख्याल में आ गई, इसलिए उनके मन में उस परम सुखदायक आर्हत धर्म का उपदेश देने का भाव उदित हो गया। भावदेव मुनिवर द्वारा वैरागी धर्मवर्षा हे मृग! तेरी सुवास से, वन हुआ चकचूर। कस्तूरी तुझ पास में, क्या ढूँढ़त है दूर ॥ हे आत्मन् ! तू इस देह में रहकर भी देह से भिन्न एक आत्मा है। तेरा असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र है। तेरे एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत गुण भरे हुए हैं। तू ज्ञान का भंडार है, सुख का खजाना है, आनंद का सागर है, उसमें डूबकी लगा। तू पंचेन्द्रियों के अनंत बाधा सहित एवं अनंत आपत्तियों के मूलभूत इन विषयों में सुख की कल्पना कर रहा है, परन्तु जरा सोच तो सही कि इस चतुर्गति रूप संसार में अनंत काल से भ्रमते-भ्रमते तूने इन्हें कब नहीं भोगा है ? इनके भोग कौन से शेष रहे हैं, जो तूने नहीं भोगे हों ? परन्तु आजतक क्या कभी एक क्षण के लिये भी इनसे सुख-शांति पाई है ? हे भव्य ! पराधीनता में कहीं भी, किसी को भी सुख की गंध नहीं मिली है। यदि इन्द्रिय-विषयों में सुख होता तो श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ और श्री अरनाथ भगवान तो चक्रवर्ती, कामदेव, और तीर्थंकर तीन-तीन पदवी के धारक थे, उन्हें कौन-सी कमी थी? फिर भी उन्होंने इन्द्रिय विषयों को एवं राज्यवैभव को गले हुए तृण के समान छोड़कर आत्मा के सच्चे अतीन्द्रिय सुख को अपनाया। इस शरीर रूपी कारागृह में फंसे हुए प्राणियों ने इसके नव मलद्वारों
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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