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जैनधर्म की कहानियाँ
दर्शनार्थ आ रहे हैं। सभी प्राणी अत्यंत हर्षायमान हैं। प्रभु का कैवल्य सभी जीवों को निज कैवल्य प्रगटाने के लिए प्रेरणा दे रहा है । " मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण प्रोन्मन एष भगवानवबोधसिन्धुः ॥
हे समस्त लोक के प्राणियों ! तुम विभ्रमरूपी पर्दे को समूलतः चीरकर फेंक दो और यह जो शांतरस से लबालब भरा ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा है, उसमें अच्छी तरह सभी एकसाथ ही आकर अन्तर्मन हो जाओ अर्थात् अब बाहर आना ही नहीं ।"
मानो यही बात दुन्दुभिवाद्य नाम का प्रातिहार्य भी कह रहा है " हे जीवो ! मोह रहित होकर जिनेन्द्र प्रभु की शरण में जाओ ।"
भव्य जीवों को ऐसा उपदेश देने के लिए ही मानो देवों का दुन्दुभी बाजा गंभीर शब्द करता है । दुन्दुभी बाजे के गंभीर नाद की प्रेरणा से आकर्षित होकर राजा श्रेणिक आदि भी सभी जन प्रभु के दर्शनार्थ समवशरण में पहुँच चुके हैं। सभी ने हाथ जोड़कर, मस्तक नवाकर, भक्तिभाव से प्रभु को नमस्कार किया। तीन प्रदक्षिणा देकर सभी स्तुति कर रहे हैं -
नाथ चिद्रूप दिखावे रे, परम ध्रुव ध्येय सिखावे रे ॥ टेक ॥ चेतनबिम्ब जिनेश्वर स्वामी, ध्यानमयी अविकारा ! दर्पण सम चेतन पर्यय गुण, द्रव्य दिखावनहारा ॥
इसके बाद सभी ने अपने-अपने स्थान पर बैठकर प्रभु की दिव्यध्यनि श्रवण की। फिर श्रेणिक राजा ने हाथ जोड़कर विनय सहित गौतम स्वामी से कुछ प्रश्न पूछे "हे गुरुवर ! सात तत्त्वों का स्वरूप है ? धर्म किसे कहते हैं ? उस धर्म की प्राप्ति का क्या उपाय है ?"
क्या
तब चार ज्ञान से सुशोभित, अनेक ऋद्धियों के अधिपति एवं क्षमा, शांति, ज्ञान, वैराग्य आदि गुणो के धारक श्री गौतम गणधर देव ने राजा के प्रश्नों के उत्तर स्वरूप जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का वर्णन किया
"हे भव्योत्तम ! तत्त्व सात होते हैं, जिनके नाम इसप्रकार हैं तव तत्त्व, अजीव तत्त्व, आस्रव तत्त्व, बंध तत्त्व, संवर तत्त्व,