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जैनधर्म की कहानियाँ में प्रत्येक वीथी के आश्रित चार-चार (कुल १६) २°नृत्यशालाएँ हैं। यहाँ ज्योतिषी देव कन्याएँ नृत्य करती हैं। इसके आगे २ चौथी वेदी है, जो भवनवासी देवों द्वारा रक्षित हैं। इसके आगे सातवीं भवनभूमि हैं, जिनमें ध्वजा-पताकायुक्त अनेक भवन हैं। इस भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिनप्रतिमाओं युक्त नौ-नौ २३स्तूप (कुल ७२ स्तूप) हैं। इसके आगे "चतुर्थ कोट (साल) है, जो कल्पवासी देवों द्वारा रक्षित है।
इसके आगे अन्तिम आठवीं २५श्रीमण्डप भूमि है। इसमें कुल १६ सोलह दीवालों के मध्य २६बारह कोठे (सभा) हैं। इस कोठों के भीतर पूर्वादि प्रदक्षिण-क्रम से पृथक्-पृथक् बारह गण बैठते हैं। उन बारह कोठों में से प्रथम कोठे में अक्षीणमहानसिक ऋद्धि तथा सर्पिरास्त्रव, क्षीरास्त्रव एवं अमृतास्त्ररूप रस-ऋद्धियों के धारक पूज्य गणधर देव प्रमुख एवं अन्य मुनिराज बैठा करते हैं।
स्फटिकमणिमयी दीवालों से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ एवं तीसरे कोठे में अतिशय विनम्र पूज्य आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ बैटती हैं। चतुर्थ कोठे में परमभक्ति से संयुक्त ज्योतिषी देवों की देवियाँ और पाँचवें कोठे में व्यन्तर देवों की विनीत देवियाँ बैठती हैं। छठे कोठे में जिनेन्द्रदेव के अर्चन में कुशल भवनवासिनी देवियाँ
और सातवें कोठे में दस प्रकार के जिनभक्त भवनवासी देव बैठते हैं। आठवें कोठे में किन्नरादिक आठ प्रकार के व्यन्तरदेव और नवमें कोठे में जिनेन्द्रदेव में मन को निर्विष्ट करनेवाले चन्द्र-सूर्यादिक ज्योतिषीदेव बैठते हैं। दसवें कोठे में सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त के देव एवं उनके इन्द्र तथा म्यारहवें कोठे में चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा एवं अन्य मनुष्य बैठते हैं और बारहवें कोठे में हाथी, सिंह, व्याघ्र और हिरणादिक तिर्यंच जीव बैठते हैं। इनमें परस्पर जाति-विरोधी जीव पूर्व वैर को छोड़कर शत्रु भी उत्तम मित्रभाव से संयुक्त होते
इनके अनन्तर निर्मल स्फटिक पाषाणों से विरचित और अपने-अपने चतुर्थ कोट के सदृश विस्तारादि सहित पांचवीं वेदी होती है।
इसके आगे वैडूर्य-मणियों से निर्मित २५प्रथम पीठ है, इस पीठ की ऊँचाई अपने-अपने मानस्तम्भादि की ऊँचाई सदृश है। इस पीठ