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जैनधर्म की कहानियाँ
होने से अभयदान हो गया। इस तरह चारों दान वहाँ प्राप्त होते
हैं ।
[ सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थंकरों के समवशरण को विचित्र रूप से रचते हैं, यहाँ उसका भी थोड़ा अवलोकन कर लेना उचित है ।]
समवशरण की रचना
१.
समवशरण के स्वरूप वर्णन में ३१ अधिकार होते हैं सामान्यभूमि, २. सोपान, ३. विन्यास, ४. वीथी, ५. धूलि साल ( प्रथम कोट ), ६. चैत्य- प्रासाद-भूमियाँ, ७. नृत्यशाला, ८. मानस्तम्भ, ९. वेदी, १०. खातिका - भूमि, ११. द्वितीय वेदी, १२. लताभूमि, १३. साल (द्वितीय कोट), १४. उपवनभूमि, १५. नृत्यशाला, १६. तृतीय वेदी, १७. ध्वज - भूमि, १८ साल (तृतीय कोट), १९. कल्पभूमि, २०. नृत्यशाला, २१. चतुर्थ वेदी, २२. भवन भूमि, २३. स्तूप, २४. साल (चतुर्थ कोट), २५. श्रीमण्डप, २६. बारह सभाओं की रचना, २७ पंचम वेदी, २८. प्रथम पीठ, २९. द्वितीय पीठ, ३०.
तृतीय पीठ और ३१. गंधकुटी ये पृथक्-पृथक् इकतीस अधिकार होते हैं।
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समवशरण की 'सामान्यभूमि गोल होती है। उसकी चारों दिशाओं में देव, मनुष्य और तिर्यंचों को चढ़ने के लिए आकाश में बीस-बीस हजार स्वर्णमयी सीढ़ियाँ (सोपान) होती हैं। इसमें चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक के अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं, यह उसका विन्यास ( कोटों आदि का सामान्य निर्देश) है। प्रत्येक दिशा के सोपानों से लेकर अष्टमभूमि के भीतर गंधकुटी की प्रथम पीठ तक एक-एक वीथी (सड़क) होती है। वीथियों के दोनों पार्श्वभागों में वीथियों जितनी ही लम्बी दो वेदियाँ होती हैं। आठों भूमियों के मूल में वज्रमय कपाटों से सुशोभित और देवों, मनुष्यों एवं तिर्यंचों के संचार से युक्त बहुत से तोरणद्वार होते हैं। सर्वप्रथम 'धूलिसाल नामक प्रथम कोट है। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार (गोपुर ) हैं । प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगलद्रव्य, नवनिधि व धूप पुतलियाँ स्थित हैं। प्रत्येक द्वार के अन्दर