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जैनधर्म की कहानियाँ आता है। उसके बत्तीस मुख होते हैं, एक-एक मुख में आठ-आठ दाँत होते हैं, एक-एक दाँत पर एक-एक कमलिनी के आश्रय बत्तीस-बत्तीस कमल के फूल होते है। एक-एक कमल के बत्तीस-बत्तीस पत्ते होते हैं, उन प्रत्येक पत्तों पर बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती हैं, यह दृश्य अद्भुत होता है - ऐसा ऐरावत हाथी होता है, जिसपर आरूढ़ सौधर्म इन्द्र होता है, उसके आगे किन्नर देवियाँ मनोहर कंठ से श्री जिनेन्द्रदेव का जयगान करती हैं, बत्तीस व्यंतरेन्द्र चमर ढोरते रहते हैं, सिर पर मनोहर छत्र है, मनोहर शोभा धारण करनेवाली अप्सरायें साथ में चल रही है।
देव-देवियों द्वारा आकाश नील-रक्त आदि रंगों से रंग-बिरंगा रूप धारण किये हुए है। देवों का समूह त्रिलोकीनाथ की पूजन-सामग्री लिये हुए प्रभुभक्ति की भावना संजोये हुए आकाशमार्ग से गमन करता हुआ आ रहा था, वह ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो देवों के समूह रूपी समुद्र में अनेक तरंगें उठ रही हैं।
जिनेन्द्र का समवशरण अहंत भगवान के उपदेश देने की सभा का नाम समवशरण है, जहाँ बैठकर तिर्यंच, मनुष्य और देव - पुरुष व स्त्रियाँ सभी उनकी अमृतवाणी श्रवण कर अपने कर्ण तो तृप्त करते ही हैं, परंतु निज-स्वरूप की आराधना करके मोक्ष की तैयारी भी करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकार से देव लोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुष्प वाटिकाएँ, वापिकायें, चैत्यवृक्ष आदि होते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्यजन अधिकतर इसी के देखने में उलझ जाते हैं। सच्चा श्रद्धालु ही अष्टभूमि में प्रवेश कर साक्षात् भगवान के दर्शनों से तथा अमृतवचनों से अपने नेत्र, कान व जीवन सफल करते हैं।
नाम की सार्थकता - इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्यध्वनि के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं, इसलिए गणधरादि देवों ने इसका 'समवशरण' - ऐसा सार्थक नाम कहा है।
समवशरण में अन्य श्रुत-केवली आदि के उपदेश देने का स्थान - भवनभूमि नाम की सप्तम भूमि में स्तूपों से आगे एक