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जैनधर्म की कहानियाँ आनंद और बाहर में डग-डग पर उपसर्ग ही उपसर्ग और परीषह ही परीषह होते हैं, परन्तु मोक्षसुख के अभिलाषियों के लिए आत्मानंद के उपभोग के सामने उपसर्ग-परीषह क्या दम रखते हैं ?
फिर भी गुरुराज का कर्तव्य है कि वे संघस्थ मुनिराजों को विपत्ति का ज्ञान करावें, जिससे सभी के भावों का पता चल सके, इसलिए श्री विद्युच्चर ने अपने संघ को कहा - "यहाँ पाँच-पाँच दिन तक घोर उपसर्ग होगा, इसलिए अपने को अन्यत्र विहार करना योग्य रहेगा।"
तब मेरु समान अकंप सभी मुनिवरवृन्दों ने हाथ जोड़कर गुरुराज से कहा - "हे गुरुवर! हम सभी को वैराग्य की वृद्धि में हेतुभूत उपसर्गों पर विजय प्राप्त करना ही श्रेष्ठ है। हम सभी ने अतीन्द्रिय आनन्द के बल से उपसर्गों पर जय प्राप्त करने के लिये ही दीक्षा ली है। कायर बनकर उपसर्गों से दूर भागना जैन यतियों का कर्तव्य नहीं है प्रभो!"
संघस्थ सभी मुनियों की वैराग्यवर्धक भावनाओं को जानकर श्री विधुच्चर मुनिराज को भी संतोष हुआ, पश्चात् दिनकर अस्ताचल की ओर चला गया। वीतरागी यतीश्वर रात्रि में आत्म साधना की उग्रता के लिए प्रतिमायोग धारण कर लेते हैं। श्री विद्युच्चर मुनिराज सहित सभी मुनिवर कायोत्सर्ग धारण कर निर्भयी आत्मा में विचरने लगे।
घोर उपसर्ग में भी अपूर्व शांति अंधकार ने अपना पूर्ण साम्राज्य जमा लिया था। नेत्रों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तभी भूत, प्रेत एवं राक्षसों ने आकर अपना भयानक रूप दिखाकर चारों ओर भागना, दौड़ना प्रारंभ कर दिया और भयानक स्वर से चिल्लाने लगे। कितने ही तो डाँस, मच्छर बनकर मुनिवरों को काटने लगे। कितने ही सर्प के समान फुफकारने लगे। कितने ही तीक्ष्ण नख व चोंचधारी मुर्गे बनकर सताने लगे। कितनों ने रक्त से मस्तक, हाथ, पैर रंग लिये। कितनों ने निर्धूम अग्नि के समान भयानक मुख बना लिये, कंठ में हड़ियों की मालाएँ बाँध ली. लाल-लाल आँखें कर ली और मुख को