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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१६९ निद्रा क्षुधा तृष्णा नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं॥ रे कर्म नहिं नोकर्म चिंता, आर्त-रौद्र जहाँ नहीं। है धर्म शुक्ल सुध्यान नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं॥ दृग ज्ञान केवल सौख्य केवल और केवल वीर्यता। होती उन्हें सप्रदेशता, अस्तित्व मूर्ति-विहीनता॥ निर्वाण ही तो सिद्ध है, है सिद्ध ही निर्वाण रे। हो कर्म से प्रविमुक्त आत्मा, पहुँचता लोकान्त रे॥
इसप्रकार अनिर्वचनीय आत्मिक अनुपम सुख के भोक्ता श्री जम्बूस्वामी सिद्ध भगवंत को नमस्कार हो।
__ मथुरा में मुनि विद्युच्चर एकादश अंग के धारक श्री विद्युच्चर मुनिराज अनेक वन-जंगलों में विहार करते हुए मथुरा नगर के उद्यान में पधारे। साथ में ५०० से भी अधिक मुनिवर वृन्दों का संघ है। सभी योगिराज तल्लीनतापूर्वक निजात्मा में बारंबार उपयोग ले जाकर शाश्वत आनंद का रसपान कर रहे हैं। साथ ही वीतरागता वर्धक ग्रन्थों का पठन-पाठन करते
इसी बीच एक दिन चंद्रमारी नाम की कोई वनदेवी आकर यतीश्वरों को प्रणाम करके कहती है - "हे गुरुवर! आज से लेकर पाँच दिन तक यहाँ भूत-प्रेतादि आकर आपके ऊपर घोरातिघोर उपसर्ग करेंगे, जिसे आप सहन नहीं कर सकोगे, इसलिए आपको यहाँ से विहार कर जाना ही श्रेष्ठ होगा। ज्ञानियों को उचित है कि संयम व ध्यान की सिद्धि के लिये ऐसे अशुभ निमित्तों से हट जावें।"
इतना कहकर वह देवी अपने स्थान पर चली गई। यद्यपि सभी मुनीश्वर आत्मिक आनंद में केलि कर रहे हैं, सभी उपसर्ग-परीषहों पर जय-करण-शील है, चतुर्गति संसार में भ्रमते हुए अनंतानंत उपसर्ग-परीषहों को संतप्त होते हुए सहे हैं, अब तो मात्र ब.ईस ही परीषह शेष रहे हैं, वे भी सहन नहीं करना है, बल्कि उन पर जय प्राप्त करना है, इसप्रकार सभी कर्मक्षय करने में दक्ष हैं। जैनेश्वरी प्रवज्या में अंतरंग-बहिरंग में छत्तीस का आंकड़ा है। अन्दर में आनंद ही