________________
१६०
जैनधर्म की कहानियाँ होकर अपनी ही अंजुलियों में ४६ दोष और ३२ अंतराल को टालते हुए शुद्ध प्रासुक आहार ग्रहण किया। अन्य श्रावकजनों ने भी भावभक्तिपूर्वक आहारदान दिया। अहो! जिनदास की धर्मपत्नी आदि महिलायें भोजन शोधकर जिनदासजी को दे रही थीं और जिनदासजी आदि श्रावक मुनिराज को आहार देते जा रहे थे।
इसतरह आहारदान की विधि सम्पन्न हुई। उसीसमय दर्शकजनों में यह चर्चा होने लगी कि मुनिराज कंधे पर अंजुली लगाकर आये हैं, इसका क्या कारण है?
उनमें से एक प्रबद्ध दर्शक ने उत्तर दिया कि मनिराज ने तो शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अंगीकार किया था; परन्तु पुरुषार्थ की कमजोरी से थोड़ी आहारादि की वृत्ति उठती है तो उससे शुद्धोपयोग में भंग पड़ता है। उस वृत्ति को अर्थात् उस अतिमंद राग को भी नष्ट करने के लिए मुनिराज अटपटी प्रतिज्ञायें लिया करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उस प्रतिज्ञा के अनुकूल विधि मिल गई तो ही आहार लूँगा, नहीं तो उस वृत्ति को टूटकर शमन होना ही पड़ेगा अर्थात् वह वृत्ति शान्त हो ही जाती है। मुनिराज का प्रयत्न सदा आत्मसाधना का ही रहता है अर्थात् पुनः ऐसी वृत्ति उत्पन्न ही न हो - ऐसा रहता है। मुनिराज तो संयम के हेतु अल्प आहार लेते हैं। उनके आहार से श्रावकों को कोई तकलीफ नहीं होती, क्योंकि मुनिराज की भ्रामरी वृत्ति होती है। जैसे भ्रमर पुष्प का पराग भी चूस लेता है और पुष्प को कोई हानि भी नहीं पहुँचती।
जिनदास श्रेष्ठी के आँगन में आहारदान के अतिशय से पुष्पवृष्टि आदि पंचाश्चर्य हुये। उसके बाद शुद्धात्म आराधक योगीराज, दयावंत गुरुवर ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक चलते हुए वन की ओर गमन करते हुए अपने गुरुवर श्री सुधर्माचार्यजी के निकट आ गये।। ___ महान ज्ञानी-ध्यानी-तेजस्वी श्री जम्बू मुनिराज को अब मात्र मोक्ष की भावना ही शेष है। वनवासी संत निरन्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र
और परमतप नामक चतुर्विध आराधनाओं में सदा अनुरक्त निरंजन निज कारण समयसार को आराधने लगे।