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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१५५ वाले योगियों के मुख से सदा सुगंध निकलती है, साथ ही औषध ऋद्धि हो जाने पर उनके कफ आदि औषधियों का काम करते
(२७) स्थिति भोजन (खड़े-खड़े भोजन) :- नित्यानंद भोजी, अतीन्द्रिय आनंद के रसास्वादी संतों को स्वरूपानंद के भोग में अंतराय करनेवाली भोजन की वृत्ति उठती है तो वे उसे भी दंडित करते हैं, क्योंकि उस वृत्ति को साकार करने हेतु उन्हें असंयमीजनों के सहवास में जाना पड़ता है, इसलिए इस वृत्ति के दंडस्वरूप खड़े-खड़े अल्प एवं शुद्ध भोजन शीघ्र लेकर वन-खण्डादि में जाकर उसका प्रायश्चित्त कर लेते हैं अर्थात् असंयमीजनों के सहवास एवं मार्ग में चलने आदि से उत्पन्न हुए दोषों की शुद्धि के लिये ईर्यापथ शुद्धि करते हैं।
(२८) एक बार भोजन :- अनाहारी पद के साधकों को जब आहार की वृत्ति ही लम्बे समय के अंतराल से उठती है, तब बार-बार भोजन का तो प्रश्न ही नहीं रहता, अत: सहज ही एक बार भोजन का नियम सधता है। उस अति मंदराग रूप वृत्ति का उठना और भोजन के योग्य काल का होना, दोनों का सुमेल ही क्वचित् कदाचित् होता है, पश्चात् चर्या को निकलना और निरंतराय भोजन का होना ही दुर्लभ है और ऐसा मेल हो भी जावे तो नि:परिग्रही मुनिराज करपात्र में ही संयम के हेतु भोजन करते हैं।
इसप्रकार जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट ये २८ मूलगुण साधु परमेष्ठी के होते हैं, इन्हीं के उत्तर भेद चौरासी लाख भी होते हैं।
इसप्रकार श्री जम्बूस्वामी ने गुणों को धरनेवाले श्रेष्ठ गुरुवर्य से मुनिधर्म का चारित्र श्रवण कर द्रव्य-भावरूप अर्थात् बाह्य में यथाजात रूप एवं अंतरंग में शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अंगीकार कर लिया। उस समय पूज्य गुरुवर की एवं श्री जम्बूस्वामी मुनिराज की राजा एवं नगरवासियों ने जय-जयकार की।
आत्मिक अतीन्द्रिय ज्ञानानंद का प्रचुर स्वाद ले-लेकर वीतरागी दिगम्बर संत श्री जम्बूस्वामीजी तो सिद्धों से बातें करने लगे। उनके अन्दर वीतरागता लबालब उछलने लगी। कैवल्य एवं सिद्धालय की