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जैनधर्म की कहानियाँ की मधुर ध्वनियों सहित सभी जनों के साथ श्रेष्ठी अर्हदास के आंगन में पधारे। वे देखते हैं कि कुमार मोह-सेना को परास्त करने के लिए अर्थात् वैराग्य रस को शीघ्र प्राप्त करने के लिए कमर कस के तैयार हैं। अब उन्हें कुछ भी कहना योग्य नहीं है। श्रेणिक ने प्रथम तो वैरागी कुमार को हाथ जोड़कर वंदना की और फिर वे निर्निमेष कुमार के मुख को देखने लगे। 'धन्य हैं कुमार! आप वास्तव में जो कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा। आपकी जीत नि:संदेह
राजा ने वैरागी कुमार को अपनी भावना पूर्ण करने हेतु तथा दीक्षा-विधि का निर्वाह करने हेतु नवीन वस्त्रालंकारों से अलंकृत किया। चंदनादि से अंगों को चरचा, मस्तक पर मुकुट लगाया और जैसे इन्द्र सुमेरुपर्वत पर बाल जिनेन्द्र को ले जाता है, उसी तरह राजा ने भी जम्बूकुमार को दीक्षावन में ले जाने हेतु शोभा-यात्रा निकाली। उस समय कुमार ऐसे शोभने लगे, मानों मुक्ति-कन्या के स्वयंवर के लिए ही तैयार हुए हों। राजा एवं पिता आदि हाथ जोड़कर कुमार के सन्मुख खड़े हैं।
तभी कुमार ने 'ॐ' का उच्चारण कर वन-गमन की भावना व्यक्त की। राजा आदि ने उन्हें मनोज्ञ पालकी में पधराया और अपने ही हाथों से पालकी को उठाकर अपने ही कंधों पर रखकर वन के लिये प्रस्थान किया। सभी नगरवासी कौतुक भाव से इस दृश्य को देखने के लिए कुमार का जय-जयकार करते हुए वन को चल रहे हैं। धन्य हो कुमार, आपकी जय हो, जय हो! वैरागी कुमार का वैराग्य जयवंत वर्तो! इन्द्रिय-विजयी की जय हो! चरम-केवली की जय हो!
उसीसमय माता जिनमती बारंबार पुत्र को गद्गद् वचनों से कहती है - "हे पुत्र ! कहाँ तो तेरा फूल जैसा कोमल वदन और कहाँ खड्ग की धारा के समान जैनधर्म का तप? हे बालक ? तू दुःखदायी भूमिशयन कैसे करेगा? हे मेरे हृदय के हार! हे मेरे नयनों के तारे! एक बार तो अपनी माता की ओर देख!"
इस तरह विलाप करती हुई दुःख के सागर में डूब गई अर्थात् मूर्छित हो गई। अपनी सास को मूर्च्छित देखकर चारों वधुयें उनका