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श्री जम्बूस्वामी चरित्र मेरे शरीर की जन्मदाता माता की आत्मा ! अब मैं अपनी त्रिकाली माता ऐसी निजात्मा के पास जाता हूँ। हे इस शरीर के जनक की
मुझे आज्ञा दो !
आत्मा ! मैं अपने शाश्वत जनक
के पास जाता हूँ । मुझे आज्ञा दो !
हे इस शरीर को रमाने वाली रमणियों ! अब मैं अपनी त्रिकाली रमणी के पास जाता हूँ। मुझे आज्ञा दो !
मैं अपनी आत्मा को प्रचुर स्व-संवेदन से ओत-प्रोत करने हेतु वीतराग पथ पर प्रयाण करना चाहता हूँ। मैं अविलंब उस पथ पर जाना चाहता हूँ ।
इस प्रकार जम्बूकुमार ने माता, पिता एवं पत्नियों से जिन - दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। कुमार के मुख को देखते हुए पिताजी विचार करते हैं कुमार! तुम्हें धन्य है, तुम्हारा राग अब सादि अनंत काल के लिए अस्त हो चुका है। अब तुम्हारे राग को पुनः जीवित करनेवाला इस जगत में कोई नहीं रहा, लेकिन हे पुत्र ! ठहरिये, ठहरिये, हम तुम्हें मना नहीं करते, परन्तु यथा-योग्य विधि के साथ राजा सहित सम्पूर्ण नगरवासी तुम्हारे साथ वन को चलेंगे।"
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श्रेष्ठी अर्हद्दास ने धर्मात्मा श्री श्रेणिक राजा के राजमहल में संदेश भेजा " आपका वीर योद्धा जम्बूकुमार अब आत्मिक प्रचुर स्व-संवेदन की ढाल द्वारा द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म को परास्त करने तथा मुक्तिपुरी का राज्य लेने के लिए शीघ्र ही प्रस्थान कर रहा है। "
राजा श्रेणिक इस आकस्मिक समाचार को सुनते ही एकदम स्तब्ध से रह गये। वे विचारते हैं। "यह चरम शरीरी कुमार किसी के रोके रुकनेवाला नहीं है, इसलिए वहाँ जाकर उसे समझाना श्रेष्ठ नहीं हैं और राग तो आखिर दुःखदायी ही है, इसलिए जितनी जल्दी टूटे, श्रेष्ठ ही है। अब कुमार के वीतरागी भावों की हमें भी हर्षपूर्वक अनुमोदना करना चाहिए।"
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अतः
राजा ने शीघ्र ही पूरे नगर में कुमार के वन-गमन की भेरी बजवा दी । भेरी का मंगल नाद सुनते ही सभी नगरवासी राजमहल में एकत्रित हुए | पश्चात् श्रेणिक महाराज हाथी पर बैठकर गाजों -बाजों
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