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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१३७ के लिए अणुव्रत आदि का उपदेश दिया गया है, परन्तु आत्महित का तो एकमात्र उपाय महाव्रत या सकल-संयम को धारण करना
फिर मैं तो चरमशरीरी हूँ, मेरे तो इस भव में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना ही है, फिर क्यों न मैं पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त होकर वन-खण्डादि में जाकर आत्मिक प्रचुर स्व-संवेदन को प्राप्त होऊँ? क्यों न अनंत गुणमयी आत्मा का भोग करूँ? गृहस्थी के योग्य अणुव्रतों का उपदेश असमर्थ जीवों को है, हम जैसों को नहीं। सचमुच गृहस्थी बसाना तो पाप है, अपराध है, अनंत दुःख का कारण है; परन्तु वे गृहस्थ भी सकल संयम की भावना रखते हैं, गृहस्थी में रहकर भी सकल-संयम की साधना करते हैं, सकल-संयम के मार्ग को ही इच्छते हैं, उनकी बुद्धि भोगों मे किंचित् मात्र भी रमती नहीं है, इसी कारण से उस गृहस्थी के उस धर्म को अणुव्रत रूप धर्म कहा है।
वास्तव में गृहस्थी तो जंजाल है, अनंत दुःखों की भट्टी है, जहाँ निरन्तर संकल्प-विकल्पों की ज्वालाएँ भबका करती हैं। उसमें यह जीव आत्मा के भान रहित होकर झुलसता रहता है। इसलिये हे मातुल! गृहस्थ-धर्म और सकल-संयमरूप मुनि-धर्म का आप यथाविधि विचार करें।"
पुनः मामा (बने विधुच्चर) बोले - "हे बेटे! शिवकुमार भी एक वस्त्र सहित अपने ही महल के उद्यान में रहे थे, वे भी भिक्षा भोजन करते थे, जिससे सभी सुखी थे, आप भी ऐसा ही करिये।"
जम्बूकुमार ने जवाब दिया • “हे मातुल! जब मैं सकल-संयम को धारण करने में समर्थ हैं, तब फिर एक या आधे वस्त्र की जरूरत ही क्या है। दूसरी बात महापुरुषों का जन्मजात जीवन ही अणुव्रतियों के समान होता है, वे तो सीधे महारत ही धारण करते हैं। मैं शूरवीर हूँ, कायर नहीं।"
इसप्रकार सभी को संतुष्ट करते हुए कुमार ने मौन का अवलंबन लिया। इतने में ही प्रात:काल की सूर्य की किरण फूट पड़ी। चारों